Tuesday 31 March 2020

देख के आता है ज़िंदगी को रोना


ये सब लौट चले
गठरी उठाये ये बेसहारे
इनको पुकारे गलियाँ चौबारा
ये सब लौट चले ....

कठिन है लम्बी राह भूखे चलना
देख के आता है ज़िंदगी को रोना
कोई ये भी जाने न जाने
नहीं है आसाँ साँसों का सँभलना
ये सब लौट चले ....

जान इनकी दाँव पर है
आँखों में आँसुओं का
रोता समँदर है
रोजी रोटी छुड़ाये शहर पराये
हाथ फैलाये इन्हें गाँव जाना है
इनका गाँव फिर इनका गाँव है
ये सब लौट चले ....

@दिनेश ठक्कर बापा
(फोटो : सोशल मीडिया से साभार)

Monday 5 November 2018

अराजक, स्याह समय में सच लिखना जोखिम भरा काम : डा. सक्सेना



नामचीन पत्रकार-साहित्यकार से ख़ास बातचीत
बिलासपुर, छत्तीसगढ़। "अराजक और स्याह समय में सच को लिखना बहुत जोखिम भरा काम होता है। वैसे भी ज़िंदगी अपने आप में एक जोखिम है। जहां तक व्यावसायिक और साहित्यिक पत्रिकाओं में अंतर का सवाल है, तो इन दोनों में काफी मूलभूत अंतर है। अंतर प्रयोजन और सरोकारों का है। आप मुनाफ़े के लिए कोई पत्रिका निकालते हैं, तो लोकहित और प्रतिबद्धता को बलाये ताक रख देते हैं। यह व्यावसायिक पत्रकारिता है। लेकिन यदि सरोकारों से जुड़ कर आप अधिनायकवाद और लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपनी भूमिका निभाना चाहते हैं, तो व्यावसायिक पत्रिका के जरिये अपने प्रयोजन, अभिष्ट साध नहीं सकते। साहित्यिक पत्रिका निकालने के लिए दुस्साहसिक रास्ता चुनना पड़ेगा। यह कठिन काम है।" यह विचार नामचीन पत्रकार-साहित्यकार डा. सुधीर सक्सेना ने बिलासपुर प्रवास पर  शनिवार, 3 नवम्बर को न्यूज़ पोर्टल "एएम पीएम टाइम्स" को दिए गए विशेष साक्षात्कार के दौरान व्यक्त किये।
 लखनऊ में जन्में डा. सक्सेना अभी दिल्ली में रहते हैं। वे वर्तमान में प्रसिद्ध सामयिक मासिक पत्रिका "दुनिया इन दिनों" के प्रधान सम्पादक हैं। पत्रकारिता और साहित्य जगत के वे महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। सामयिक पत्रिका "माया" से वे बतौर ब्यूरो प्रमुख, राजनैतिक सम्पादक लगभग ढाई दशक तक जुड़े रहे। बिलासपुर के दैनिक लोकस्वर से भी वे शुरूआती दिनों में जुड़े थे। इसके अलावा दैनिक महाकोशल, आज, जागरण आदि अख़बारों, संवाद समिति समाचार भारती, हिंदी पोर्टल वेब दुनिया, राज टीवी आदि से भी संबद्धता रही। वॉयस ऑफ अमेरिका के लिए भी वे नियमित रिपोर्टिंग करते हैं। लघु पत्रिका अभिव्यक्ति (नागपुर), अभी (कानपुर), और दैनिक साँझ तक (भोपाल) का सम्पादन भी किया। वे साप्ताहिक इंडिया न्यूज़ (दिल्ली) के संस्थापक सम्पादक और राष्ट्रीय हिंदी मेल (भोपाल) के सलाहकार सम्पादक  रहे हैं। डा. सक्सेना ने विज्ञान और पत्रकारिता में डिग्री, लोक प्रशासन और हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि, रूसी भाषा तथा ट्राइबल आर्ट्स एण्ड कल्चर में डिप्लोमा हासिल किया है। सबल्टर्न स्टडीज में इनकी गहरी रुचि रही है। इन्होंने आजादी की लड़ाई में आदिवासियों की शिरकत पर शोध कार्य कर पीएचडी की। बालकृष्ण शर्मा नवीन फेलोशिप प्राप्त डा. सक्सेना ने उज़्बेकिस्तान, अर्मीनिया, रूस समेत पूर्व सोवियत संघ, नेपाल, हांगकांग, चीन, जापान, मलेशिया, थाईलैंड, साउथ अफ्रीका, मिस्र, इथियोपिया, इस्रायल, तुर्की, श्रीलंका आदि देशों की यात्राएं कर विविध अनुभव हासिल किये हैं।
पत्रकारिता के साथ ही साहित्य सृजन के क्षेत्र में भी वे निरन्तर जुटे रहते हैं। कविता, इतिहास लेखन, अनुवाद और सम्पादन में वे एक साथ सक्रिय हैं। इनकी लंबी कविताओं की पुस्तक "बीसवीं सदी, इक्कसवीं सदी", "धूसर में बिलासपुर" बेहद चर्चित रही। कविता संग्रह "बहुत दिनों के बाद, समरकंद में बाबर, काल को भी नहीं पता, राज जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी, किरच-किरच यक़ीन, ईश्वर हां नहीं तो तथा कुछ भी नहीं अंतिम" पर देश भर काफी चर्चा हुई। अनुदित कृति "कभी न छीने काल (कायसिन कुलियेव), स्मृति गाथा (येगोर इसायेव), एक अव्वल चमत्कार (सदी की पोलिश कवितायें) के अतिरिक्त सह अनुवाद बतौर "अर्द्ध रात्रि में पक्षी की आवाज़ (ओसिप मंदेलश्ताम - अनिल जनविजय के साथ) ब्राजील की कवितायें सराही गई। कविता पोस्टर : स्टीफेन स्पेंडर की कवितायें भी समालोचकों ने पसन्द की। गद्य कृतियाँ "मध्य प्रदेश में आजादी की लड़ाई और आदिवासी, भूमकाल, ऐसे आये गांधी, छत्तीसगढ़ में गांधी, बस्तर का भूचाल, गुण्डाधूर : युयुत्सु महानायक" की चर्चा आज भी होती है। डा. सुधीर सक्सेना को सोमदत्त सम्मान, पुश्किन अवार्ड, माधवराव सप्रे पुरस्कार, वागेश्वरी अलंकरण, जिपलेप, सृजन गाथा, त्रिसुगंधी, लाल बलदेव सिंह और प्रमोद वर्मा सम्मान से नवाज़ा जा चुका है।
 लंबी कविता की पुस्तक "धूसर में बिलासपुर" (प्रकाशक - लोकमित्र, दिल्ली, वर्ष 2015) की प्रस्तावना में डा. सुधीर सक्सेना ने लिखा है -"इसमें बिलासपुर की याद है, बिलासपुर के अक्स हैं, सपने हैं, चेहरे हैं, मोहरे हैं, मोहल्ले हैं, बदलती फिज़ा और बहुत कुछ है। मैं बिलासपुर आया था सन् 80 के शुरूआती दिनों में। यकीन कीजिये कि मैं फिर यहां से गया ही नहीं। मैं यहीं छूट गया। भोपाल और दिल्ली गया मैं तबसे यहीं छूटा हुआ हूँ। यहां से कहीं और न जाने के लिए। अपनत्व और यकीन की सिमटती दुनिया में बिलासपुर एक यकीन है। बचा हुआ अपनापन है। श्वेत और श्याम के दरम्यां एक खूबसूरतअत धूसरपन है। वह खूबसूरत लगता है कि वहां न तो चौंधियाती सफेदी है न ही डरावना कालापन।"
उन्होंने अपनी इस लम्बी कविता में बिलासपुर के राजनैतिक परिदृश्य पर लिखा है -"कविता की आँख से देखो तो/ सारे के सारे पोस्टर धूसर हैं/ धूसर हैं सारे होर्डिंग्स/ धूसर हैं सारे चेहरे/ और तो और, धूसर है सारा बिलासपुर/ आज से नहीं/ मुद्दत से/ सियासत शगल है शहर का/ शहर की तासीर में घुली है सियासत/ जैसे हवा में घुली रहती है गंध/ या कि पानी में गुंथी रहती है/ हाइड्रोजन और ऑक्सीजन/ या फिर प्याज में बसी रहती है गजब की धांस/ शहर में कमी नहीं है पोस्टर-ब्वॉयों की/ और तो और पोस्टर-गर्ल भी नहीं गैरमौजूद/ गौर से देखें तो/ पोस्टर में गोलमटोल बेमूँछ चेहरा धूसर है/ और धूसर है दर्प में डूबे राजसी चेहरे की/ कभी दांव पर लगी ताव खाई मूँछें/ धूसर है सारे पौर/ यहां तक कि महापौर भी।"
बिलासपुर के पुराने मित्र पत्रकार, साहित्यकार, कलाविद, नेताओं पर भी उन्होंने लिखा है -" वो देखो/ शाम के अखबार के बोगदे में सवार हैं नथमल/ प्रताप ठाकुर के कानों में अभी भी गूंजती है/ क्लिक-क्लिक की आवाज/ लोकल खबरों की गर्माहट में भीगे हैं/ प्राण चड्ढा, दिनेश ठक्कर और सईद खान/ बिलासपुर के कर्ण कुहर में तैरते हैं/ श्यामलाल चतुर्वेदी के कोमल बैन/ शाकिर अली के बैग में है/ फाइलें कम, किताबें ज्यादा/ वो देखो, विनोद चौबे की याद में/ किस कदर डबडबाये हैं नगर के नैन/ वो देखो/ पाली में प्राण-प्रतिष्ठा के लिए/ अभी भी किस कदर बेचैन हैं कथाकार सतीश जायसवाल/ वो देखो/ राउत-महोत्सव के लिए कालीचरण यादव का समर्पण/ अमल में भले नहीं, अलबत्ता जेहन में/ फड़फड़ाती शहर के उन्नयन की योजनाएं लिए/ फिरते हैं डा. बद्री जायसवाल/ क्षिति की चिंता में डूबी/ क्षितिज के पार देखती दिखाई देती है/ बाज वक्त/ वाणी राव/ सुनो/ सूरज बाई खांडे ने अभी-अभी छेड़ी है/ भरथरी की तान/ उसी के वास्ते ठिठकी है हवा/ पुरखों के आशीर्वचन झरते हैं आसमान से।"
इस किताब पर अपनी टिप्पणी में वरिष्ठ साहित्यकार राजेश जोशी ने लिखा है-"यह एक शहर की स्मृतियों का एलबम है। एक ऐसा एलबम जिसमें कविता की बीनाई से देखे गए चित्र हैं। इतिहास और पौराणिक आख्यानों से लेकर आज तक के अनेक चित्र। कविता शहर के बदलते हुए समय की बही को बाँचती है। इस बही में अंकित हैं अनेक उजले और स्याह नाम।"
उल्लेखनीय है कि डा. सुधीर सक्सेना के व्यक्तित्व और कृतित्व पर पत्रिका "दुनिया इन दिनों" के एसोशिएट सम्पादक (वरिष्ठ) रईस अहमद लाली के सम्पादन में  पुस्तक "जैसे धूप में घना साया" (प्रकाशक - लोकमित्र, वर्ष 2018) प्रकाशित हुई है। इसमें 24 रचनाकारों के आलेख हैं। इसमें डा. सुधीर सक्सेना के महत्व को विश्लेषित करते हुए रईस अहमद लाली ने लिखा है-"उनका साहित्यिक अवदान किसी भी कथित बड़े साहित्यकार या जनवादी-लोकधर्मी परम्परा के वाहक कवियों से किसी भी हद में कमतर नहीं। लोग भले ही आज अपनी अपनी हदबंदियों के कारण, अपने अपने नफे-नुकसान के चलते इसे स्वीकार करने से कतरा रहे हैं, लेकिन कभी न कभी उन्हें इस सच्चाई को स्वीकार करना ही होगा। सुधीर सक्सेना ने कभी अपने आपको, अपनी रचना को नारों तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने लोक के विस्तार में चीजों को देखने और उसे कलमबंद करने की कोशिश की है।"
डा. सुधीर सक्सेना की काव्य-कृति "ईश्वर हाँ, नहीं ... तो" से भी स्पष्ट होता है कि वे खुले विचारों के हैं। प्रख्यात चित्रकार-लेखक अखिलेश ने इसमें अपनी टिप्पणी में लिखा है -" इन कविताओं में एक सच्चाई और सीधे संवाद की कोशिश दिखाई देती है। वे ईश्वर से झगड़ा करते हुए अपने होने के बारे में भी है। इन कविताओं का देशकाल शब्द में है, किसी बाहरी सन्दर्भ में नहीं। इन कविताओं की आतंरिक संरचना मुखर होकर पाठक को व्यथित करती है।ये कवितायें पूर्णतः एक भारतीय मनस की कल्पना है।"
"ईश्वर हाँ, नहीं ... तो" के अध्याय तेरह में डा. सुधीर सक्सेना लिखते हैं "खोटे सिक्कों के वर्चस्व के युग में/ माना कि हम तुम्हें ख़ारिज नहीं कर सकते/ प्रभु ! / किन्तु कितना कुछ शको-शुबहा है/ तुम्हें लेकर/ सदियों की मुंडेर पर/ सब्ज़े सा उगा हुआ/ पोथियों में तुम नहीं/ तुम्हारे चमत्कार हैं/ मंदिरों में तुम नहीं/ तुम्हारे बुत हैं/ इबादतगाहों में नहीं हैं, तुम्हारे होने की तस्वीर/ मठों में मंत्र और यंत्र हैं/ तुम नहीं, तुम्हारे अलग-अलग आसनों की छवियाँ/ कहीं भी/ रोग-शोक दूर नहीं होता/ दूर नहीं होती विपत्ति या विपन्नता/ न जाने कौन सी शती थी/ जब ईश्वरीय शक्तियों से तुम/ च्युत हुए/ ईश्वर ! "
डा. सुधीर सक्सेना अपने साहित्य सृजन में जितने स्पष्टवादी हैं, उतने ही स्पष्ट विचार उन्होंने भेंटवार्ता के दौरान भी व्यक्त किये। अपनी सृजन यात्रा के बारे में उन्होंने बताया कि, "सफ़र की शुरूआत करीब 63 साल पहले लखनऊ से होती है, जहां मैंने जन्म लिया था। मेरे परिवार में साहित्य, कला, संस्कृति का माहौल था। पिताजी, चाचाजी स्वयं कवि थे। वे पारम्परिक छंदबद्ध कविता से जुड़े थे। पिताजी की कवितायें पत्रिका "विशाल भारत" आदि में छपा करती थी। मेरा बचपन लखनऊ में बीता। रायबरेली में प्राथमिक पाठशाला में पढ़ा। इसके बाद आगरा, नागपुर, दिल्ली, कानपुर, रायपुर, बिलासपुर, भोपाल, दिल्ली की यात्राएं लगातार होती रही। एक पाँव दिल्ली में  तो दूसरा पाँव भोपाल में। जहां तक कविता लिखने की शुरूआत की बात है, तो कविता से पहला रिश्ता बचपन में ही जुड़ गया था, जब मैं काव्य गोष्ठी और कवि सम्मेलनों में सुनने जाता था। माँ किताबों को पढ़ने की शौक़ीन थी। माँ के लिए लाइब्रेरी से उपन्यास और अन्य विधाओं की किताबें लाया करता था, जिसे मैं, मेरे भाई बहन भी पढ़ते थे। मैंने पहली कविता तब लिखी थी, जब आगरा में हाई स्कूल का छात्र था। वे कवितायें पढ़ी हुई कविताओं का अनुकरण थी। फिर 70 के दशक में जब मैं नागपुर गया, तब ऎसे मित्रों के संसर्ग में आया, जिनसे मुझे ज्ञात हुआ कि कविता क्या होती है। मैंने पाया कविता दुखों से ऊपर की चीज है। वह संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। बेहतर कविता के लिए विचार, सरोकार स्पष्ट होने चाहिए। 77 के दशक में मैं आपातकाल के दौरान पत्रकारिता से जुड़ा। यदि 19 माह की इमरजेंसी नहीं लगी होती तो मैं संभवतः पत्रकारिता से उन्मुख नहीं होता। किसी शासकीय नौकरी में चला गया होता। उससे जीविकोपार्जन कर रहा होता। लेकिन लिखना नहीं छोड़ता। नागपुर में मित्रों विशेषकर विनायक कराडे की सोहबत, उनके साथ अनवरत विमर्श, जिरह के बाद मैंने लेखन का रास्ता चुना जो आज तक बदस्तूर जारी है। पत्रकारीय लेखन, मौलिक लेखन, इतिहास लेखन, अनुवाद, उपन्यास, कवितायें, यात्रा वृत्तांत, डाक्यूमेशन लिखने का सिलसिला जारी है। हिंदी के अनन्य सेवक सेठ गोविन्ददास के जीवन पर आधारित शोधपरक उपन्यास लिखा। "गोविन्द की गति गोविन्द" लिखा। इस बीच मेरी कविताओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अलबत्ता मैंने भी ब्राजील, रूस, स्वीडन, पोलेंड, इराक आदि देशों के रचनाकारों की कविताओं का अनुवाद किया। मुझे लगता है कविता ने मुझको चुना। मैंने साहित्य को चुना है। यह रिश्ता आजीवन निभेगा। बिना लिखे , पढ़े,  सोचे मैं नहीं रह सकता। इसके बिना अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकता। लेखन ही मेरा जीवन है।"
आप पत्रकारिता, कविता, अनुवाद, सम्पादन, इतिहास लेखन आदि से संलग्न हैं, इन सबके साथ न्याय कैसे कर पाते हैं? जवाब था " अगर आप किसी चीज से गहरे जुड़े हैं, तो न्याय अन्याय की बात नहीं उठती। अगर साहित्य जरूरत बन जाती है, तो उससे गहरे जुड़ जाते हैं। अभिव्यक्ति की छटपटाहट, उसकी तीव्रता होती है, जिसके कारण आप लिखते हैं। जो कविता में छूटता है, आप उसे अन्य विधा में कहते हैं। शब्दों, रंगों, शिल्प आदि में आप अपने को व्यक्त करते हैं।"
विश्व कविता और हिंदी कविता के स्तर में आप क्या अंतर महसूस करते हैं? डा. सक्सेना ने कहा " देशकाल, परिस्थितियों से जुड़ कर कविता महान होती है। स्थानीय हुए बगैर आप वैश्विक नहीं हो सकते। भारत, स्पेन, अफ्रीका, लेटिन अमरीका के सन्दर्भ अलग अलग होते हैं। बिलासपुर, रायपुर, आदि जगहों में लिखी जा रही कविता विश्व कविता का ही अंश है। भारतीय कविता कहीं न कहीं विश्व कविता से जुड़ती है। नेकी और बदी की लड़ाई में कविता हमेशा नेकी के साथ खड़ी रहती है। भारतीय कविता में संताप, आलाप, प्रतिरोध, जिरह, प्रेम, प्रार्थना भी है।"
साहित्य में प्रगतिशील और जनवादी लेखन की जगह के सवाल पर डा. सक्सेना का कहना था " अच्छा और सही लेखन हमेशा प्रगतिशील और जनवादी लेखन होता है। इसमें ठप्पा लगाने, इसे संगठन के साँचे में देखने की जरूरत नहीं है। जो मानवीय करूणा, संघर्ष के स्वर को जगह देता है वो प्रगतिशील लेखन होता है। हर युग में कवि अपने को उन शक्तियों के खिलाफ पाता है, जो अमानवीय और अराजक होती है। वो शक्तियां जो मनुष्य को मनुष्यता से युद्ध करने का षड्यंत्र रचती है।"
सोशल मीडिया में साहित्य की उपस्थिति पर इनका मंतव्य था, "सोशल मीडिया ने अपने लिए एक बड़ा स्पेस तलाशा है। जो अपने को व्यक्त करना चाहते हैं उसने उनको जगह दी है। यह एक सुलभ तरीका है। अब कागज़ की जरूरत, सम्पादक से संपर्क साधने की जरूरत, छपने का इंतजार करने की जरूरत नहीं रही। अब आप अपने को तुरंत व्यक्त कर सकते हैं। क्षणों में ही लाखों, करोड़ों लोगों तक पहुंच सकते हैं। सोशल मीडिया में अच्छी , बुरी दोनों चीजें आ रही हैं। सोशल मीडिया जितना शक्तिशाली, कारगर, प्रभावी है उतना उसमें कबाड़ भी आ रहा है। हालांकि इसकी बढती ताकत से इंकार भी नहीं किया जा सकता।"
आजादी की लड़ाई में आदिवासियों की शिरकत पर आपने पीएचडी की है, वर्तमान में बस्तर समेत अन्य क्षेत्र के आदिवासियों की क्या स्थिति आंकलित करते है? उन्होंने दुःख जताते हुए कहा "आजादी की लड़ाई में आदिवासियों के काम, योगदान को सही तरीके से रेखांकित नहीं किया गया है, चाहे वे आदिवासी शूरवीर बस्तर, झाबुआ या अन्य क्षेत्र के हों। बस्तर के आदिवासी नायक गुण्डाधूर को कितने लोग जानते हैं। चार आदिवासी नायक ऎसे हुए हैं, जो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से पहले बस्तर में शहीद हो गए थे। आदिवासी अंचल में एक लम्बी परम्परा रही है, जिसमें अनेक आदिवासी नायकों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया है। हम दुर्भाग्य से उनके बारे में नहीं जानते। जहां तक अभी बस्तर की स्थिति का सवाल है, तो बस्तर अभिशप्त है, वह  दो पाटों के बीच पिस रहा है। एक तरफ वे शासकीय राजकीय व्यवस्था में दमन, शोषण, अनसुनापन के शिकार हैं तो दूसरी ओर नक्सलियों की हिंसा से पीड़ित हैं। लेकिन उम्मीद करना चाहिए कि वह दिन आएगा जब व्यवस्था बस्तर की संवेदनाओं को बुझेगी। उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति की दिशा में कदम उठाये जाएंगे। हालांकि तात्कालिक तौर पर कोई रोशनी नज़र नहीं आ रही है।"
(भेंटवार्ता और चित्र दिनेश ठक्कर बापा द्वारा)

Saturday 3 November 2018

पत्रिका "दुनिया इन दिनों" में प्रकाशित ग़ज़ल "वुजूद"


प्रसिद्ध सामयिक पत्रिका "दुनिया इन दिनों" के नवम्बर अंक में मेरी ग़ज़ल "वुजूद" प्रकाशित हुई है। शुभचिंतक, मित्र पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत है।

साहित्य खुले दिमाग वालों के लिए है : शाकिर अली



वरिष्ठ कवि-समालोचक से विशेष साक्षात्कार
बिलासपुर, छत्तीसगढ़। "साहित्य खुले दिमाग वालों के लिए है। पहले भी रहा है और आगे भी रहेगा। लोग इसमें सांस्कृतिक रूप से भी अपना योगदान देते हैं। साहित्य में प्रतिक्रियावाद एक कोने में चला गया है। साहित्य में प्रतिक्रियावादियों के लिए कोई जगह नहीं है। वो हाशिए में चले जाते हैं। प्रगतिशील और जनवादी विचारों की मुख्य धारा में आना है तो शोषण के खिलाफ लिखना होगा। तभी वे साहित्य में प्रतिस्थापित होते हैं।" यह विचार बिलासपुर के वरिष्ठ कवि-समालोचक शाकिर अली  ने गुरूवार,1 नवम्बर को अपने निवास में न्यूज़ पोर्टल "एएम पीएम टाइम्स" को दिए गए विशेष साक्षात्कार के दौरान व्यक्त किये।
साहित्य सृजन यात्रा के सन्दर्भ में उन्होंने बताया कि "स्कूल के दिनों से ही साहित्य के प्रति मेरी रुचि थी। धर्मयुग, सारिका, दिनमान जैसी नामी पत्रिकाओं को पढ़ते  हुए रूचि जागृत हुई। इनमें छपने वाली कवितायें अच्छी लगती थी। दिनमान में प्रकाशित कविताओं का अनुवाद पढ़ना अच्छा लगता था। कॉलेज के दिनों कवितायें लिखना शुरू हुआ। कॉलेज की पत्रिका में कवितायें छपी।  हालांकि मैं विज्ञान में स्नातक था लेकिन राजेश्वर सक्सेना के माध्यम से मैंने साहित्य में बहुत अध्ययन किया। हिंदी साहित्य में एएम भी किया। फिर जब ज्ञानरंजन के सम्पादन में जबलपुर से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका "पहल" के मई, 1976 के अंक में मेरा आलेख "वर्ण से वर्ग तक की यात्रा का समाजशास्त्र" प्रकाशित हुआ तो उस पर काफी वाद विवाद हुआ। देश भर में उसकी चर्चा हुई। वर्ष 1977-78 में "पहल" में अमेरिकन दार्शनिक हरवर्ट मारक्यूज के विचारों का अनुवाद भी छपा। भोपाल से शानी जी के सम्पादन में निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका "साक्षात्कार" के दिसम्बर 1977 - फरवरी 1978 के अंक में पहली बार मेरी तीन कवितायें "उसका इतिहास", "काले पहाड़ और हरे पेड़", तथा "कपड़े का आदमी" छपी। इससे मेरे मन में आत्मविश्वास बढ़ा कि मैं भी कवितायें लिख सकता हूँ। फिर तो आलेख, समीक्षा, कवितायें लिखने का काम लगातार चलता रहा।"
 12 सितम्बर, 1951 को बिलासपुर में जन्मे शाकिर अली की विभिन्न रचनाएं देश भर की पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित होती रही है। पत्रिका आकंठ, सर्वनाम, साम्य, वागर्थ, कृति और, सम्प्रेषण, वर्तमान साहित्य, शीराजा, लेखन सूत्र, सारिका, में भी अलग अलग विधा की रचनाएं छपी। आकाशवाणी बिलासपुर, रायपुर से भी रचनाएं प्रसारित हुई। वर्ष 1981 में भाषा प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित लेख संग्रह "साहित्य और राजनीति" (सम्पादन - डा. कुंवरपाल सिंह) में इनका चर्चित लेख "वर्ण से वर्ग तक की यात्रा का समाजशास्त्र" भी शामिल किया गया था। यह बीस रचनाकारों के लेखों का संकलन था। वर्ष 2017 में अनन्य प्रकाशन, दिल्ली द्वारा  प्रकाशित 66 कवियों की कविताओं का संग्रह "दूसरी हिंदी" (सम्पादन-निर्मला गर्ग) में शाकिर अली की दो कवितायें "मीडिया और मुसलमान", "कठिन समय में मित्र -संसार" शामिल थी। इसी वर्ष माह जुलाई में इनका प्रथम काव्य संग्रह "बचा रह जायेगा बस्तर" और दूसरा काव्य संग्रह "नये जनतंत्र में" उद्भावना प्रकाशन, राजनगर, गाजियाबाद से प्रकाशित हुआ है।
छत्तीसगढ़ राज्य ग्रामीण बैंक से सेवानिवृत्त शाकिर अली ने अपने पहले काव्य संग्रह "बचा रह जायेगा बस्तर" के सृजन के सन्दर्भ में बताया कि "वे जब वर्ष 2004 से 2008 तक बस्तर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक में बतौर अंकेक्षक कार्यरत थे, तब वे बस्तर अंचल में गाँव-गाँव घूमते थे। बस्तर क्षेत्र को बहुत नजदीक से जाना समझा। वर्ष 2005 में जब वहां सलवा जुड़ूम अभियान शुरू हुआ तब लोग आतंक के साये में जी रहे थे। उसकी प्रतिच्छाया कविताओं में है। बस्तर पर पत्रिका "पहल" में छपी 25 कवितायें तथा पत्रिका "कृति और" में प्रकाशित 16 कविताएँ मेरे इस पहले काव्य संग्रह में शामिल हैं।"
 काव्य संग्रह "बचा रह जायेगा बस्तर" की भूमिका में श्री अली लिखते है कि, "बस्तर पर लिखना बहुत कठिन है, और उससे भी ज्यादा कठिन है, यहां के लोगों के दुखों पर लिखना। जिनका दुःख नदी जितना गहरा, धरती जितना फैला हुआ और पहाड़ जितना ऊँचा है। बस्तर के इंसान का दुःख अनंत है, क्योंकि यह पूरी धरती के इंसानों के अनंत दुःखों का ही एक हिस्सा है। बस्तर में जंगल के आदमी को, उसके जंगल को, पहाड़ को, नदी को हारते  देखना बेहद रुला देने वाला दृश्य है। बस्तर पर ये कवितायें लंबी कविता नहीं, यह लंबा पर्वत रूदन है, जंगल क्रंदन है, नदी की सिसकियाँ हैं। इनमें आक्रोश नहीं है, सिर्फ आदिवासियों में आक्रोश है, बाकी सब तटस्थ हैं या लूट में शामिल!"
शाकिर अली कविता "बस्तर के लोग" में लिखते हैं -"बस्तर के लोग/ काठ बन कर घरों के खिड़की, दरवाजे, पलंग बन कर रह गये/ बस्तर के लोग/ बस्तर आर्ट बन कर दुनिया भर के/ ड्राइंग रूम की शोभा बन कर रह गये/ बस्तर के लोग/ नष्ट हो गए, अपने साल वनों के द्वीप के समान ही/ नष्ट हो गये, उनके घोटुल, उनका मृत्यु संगीत/ और/ उनके काठ के स्मृति चिन्ह।"
कविता "बारूदी गंध" में वे लिखते हैं - "बस्तर को हजम करना/ कितना आसान है/ यहां के लोहे के पहाड़/ गहरी नदी इंद्रावती, शबरी/ यहां का कोरण्डम, टिन, यूरेनियम/ सब हजम कर लिये गये/ यहां चित्रकूट, तीरथगढ़ प्रपात/ बस्तर की हालत पर/ ढेरों आंसू बहाते हैं/ बारूदी गंध से घबरा कर हवा/ कैलाश गुफा और कुटुमसर की गुफाओं में ही/ थोड़ी देर पाती है, विश्राम!"
इस मार्मिक और चिंतनीय काव्य संग्रह में अपनी टिप्पणी में वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार सुधीर सक्सेना ने लिखा है-" ये कवितायें वही कवि लिख सकता है, जो बस्तर की वेदना और संवेदना से एकाकार है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि आज बस्तर में बस्तर नहीं है।बस्तर की धरती आज कच्ची, वीरान और श्रीहीन है। पहाड़ न तो चल सकते हैं और न ही बोल सकते हैं। उन्हें बोया भी नहीं जा सकता। धरती उदास है, नदियां बेआब और पेड़ पीछे की ओर दुर्गम में चले गये हैं। शाकिर की कवितायें इसी भयावह सच को व्यक्त करती हैं। उनकी कविताओं में बस्तर के उस विविधवर्णी सौंदर्य के अक्स हैं, जो बस्तर को बस्तर बनाता था। वे चीजें लुप्तप्रायः हैं, जिनके होने से बस्तर, बस्तर था, आत्मीय, चित्ताकर्षक और विलक्षण! संवेदनाहीन यांत्रिक सभ्यता के हाथों बस्तर आज एक रिश्ते हुए व्रण में तब्दील हो गया है, मगर सभ्यता का कोई मलाल नहीं है। प्रायश्चित तो दूर की बात है।"
इसी प्रकार की सटीक टिप्पणी नासिर अहमद सिकंदर ने भी शाकिर अली के दूसरे काव्य संग्रह "नये जनतंत्र में" लिखी है। वे लिखते हैं " शाकिर की राजनैतिक कवितायें भी सरलीकृत शिल्प की कवितायें नहीं हैं। उनकी कविताओं में वाम राजनीति के बिखरते स्वरूप पर वाजिब चिंता भी है। केदार, नागार्जुन, मुक्तिबोध की तरह वे इस स्वरूप को कविता में रचते हैं। मुक्तिबोध अपने काव्यात्मक मूल्यों में अंतःकरण का आयतन जिसे कहते थे तथा उनकी संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन की पद्धतियाँ क्या थीं, उसे देखना हो तो शाकिर की कविताओं में देखा जा सकता है।"
सार्थक शब्द और कविताओं के बारे में शाकिर अली हमेशा गंभीर और चिंतित रहते हैं। वे अपनी कविता "शताब्दियों का सच" में लिखते हैं -"कविता में आने से पहले/ शब्द ढलते हैं, कारखानों में/ टकसालों में, मानव समाज में/ पलते हैं, घरों में, स्कूलों में/ पाठ्य पुस्तकों में/ नानी की कहानियों में/ बच्चों की तुतलाहट में/ मचलते हैं, खेल के मैदान में/ टाकीजों में, फिल्मों में/ टीवी सीरियलों में/ बाजार में, दूकान में/ व्यापार में, शेयर बाजार में/ टहलते हैं, राजनीति में, धर्म में/ जनता के मर्म में/ समेट  कर लाते हैं/ सारा कुछ बुहार कर/ यथार्थ, सब जगह से।"
भेंटवार्ता के दौरान जब शाकिर अली से यह पूछा गया कि आपके दूसरे काव्य संग्रह में ज्यादातर कवितायें आपके साहित्यिक मित्रों पर ही क्यों केंद्रित है? इनका प्रत्युत्तर था "साहित्यिक मित्रों के माध्यम से ही मेरा बहुत सारा संस्कार हुआ। जब बिलासपुर के मिलन मंदिर में पूजा के दौरान जाता था तब बांग्ला संस्कृति से लगाव हुआ। बांग्ला भाषा भी सीखी। सुकांत भट्टाचार्य की कविताओं का हिंदी में अनुवाद भी किया। इसके अलावा मराठी कविताओं का भी अनुवाद किया। अनुवाद के प्रति मेरी गहरी रुचि रही।"
पत्रिका "पहल" के मई 1976 के अंक में आपके आलेख "वर्ण से वर्ग तक की यात्रा का समाजशास्त्र" में राष्ट्रीय बूर्जुआ के उद्धरण को लेकर देश भर में काफी विवाद हुआ था। असलियत क्या थी? इसके जवाब में सफाई देते हुए उन्होंने कहा कि, "वर्ग विभाजित समाज है हमारा। विश्व भी है। पूंजीवादी समाज में अमीर और गरीब दोनों होते हैं। अमीरों का संसाधनों पर कब्जा रहता है। अंग्रेज भी लुटेरे बन कर आये थे। जहां तक राष्ट्रीय बूर्जुआ की परिभाषा का सवाल है, तो पढ़े लिखे, साधन सम्पन्न जो लोग होते हैं, उन्हें राष्ट्रीय बूर्जुआ कहा जाता है। स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी जी और नेहरू जी को राष्ट्रीय बूर्जुआ लीडर माना जाता है। उन्होंने आम जनता को साम्राज्यवाद के खिलाफ गोलबंद किया था। ये समाज का नेतृत्व कर रहे थे। राष्ट्रीय बूर्जुआ एक सम्मानजनक शब्द है, जिसका नासमझ लोगों ने गलत अर्थ लिया। नासमझ लोगों ने इस शब्द को गाली सूचक माना और कहा कि इससे हमारे राष्ट्रीय नेताओं का अपमान हुआ है। जबकि यह आरोप गलत था। तब इसके बचाव में देशबन्धु के प्रधान सम्पादक मायाराम सुरजन के नेतृत्व में प्रबुद्ध लेखकों ने तात्कालीन मुख्यमंत्री श्याचरण शुक्ल से मुलाक़ात कर वास्तविक स्थिति से अवगत कराया था। उन्हें समझाया गया कि यह गाली गलौच का नहीँ बल्कि विश्लेषण का मामला है। राष्ट्रीय बूर्जुआ पारिभाषिक शब्दावली है, गाली नहीं।"
सनद रहे कि पत्रिका "धर्मयुग" के 11 सितम्बर 1977 के अंक में विश्वभावन देवलिया का संकलन लेख "छद्म प्रगतिशीलों की "पहल"-वानी" प्रकाशित हुआ था, जिसमें शाकिर अली के पहल वाले विवादास्पद लेख पर भी आलोचनात्मक टिप्पणी छपी थी। इसके अलावा पत्रिका "कादम्बिनी" (सम्पादक राजेन्द्र अवस्थी) के सितम्बर 1976 के अंक में भी  स्तम्भ "समय के हस्ताक्षर" में शीर्षक "सरकारी अनुदान का दुरूपयोग" के तहत आलोचनात्मक टिप्पणी प्रकाशित हुई थी। इसके बाद जम कर खेमेबाजी हुई थी। शाकिर अली के पहल वाले लेख के समर्थन में भोपाल, ग्वालियर, जबलपुर, कटनी, रतलाम, विदिशा, बिलासपुर, लखनऊ, वाराणसी, हैदराबाद, जोधपुर, दिल्ली, कलकता आदि जगहों के प्रगतिशील और प्रबुद्ध लेखकों, विचारकों, कलाकारों द्वारा समर्थन प्रस्ताव पारित किया गया था। दैनिक देशबन्धु, रायपुर के 24 सितम्बर 1976 के अंक में मायाराम सुरजन ने "मामला पहल का : दिमाग जहर का" शीर्षक से सम्पादकीय लिखा था। इसी प्रकार समर्थन में समांतर लेखक संघ के महामन्त्री ने पत्रिका "सारिका" (सम्पादक कमलेश्वर) के दिसम्बर 1976 के अंक में पाठकीय पृष्ठ में  "प्रगतिशील चिंतन और प्रतिगामी बौखलाहट" शीर्षक से टिप्पणी लिखी थी।
शाकिर अली विशुद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं के पक्षधर हैं। साहित्यिक और व्यावसायिक पत्रिकाओं में अंतर और उनके भविष्य के बारे में इनका जवाब था "व्यावसायिक पत्रिकाएं तो लगातार बन्द होते जा रही है। आज के दौर में व्यावसायिक पत्रिकाएं नहीं चल सकती। इनका ज़माना गया। इसे छापना कठिन है। जबकि साहित्यिक पत्रिकाएं चल रही हैं। हंस, कथादेश, पाखी, परिकथा, वसुधा, नया पथ, पहल, वागर्थ, पाठ, आदि साहित्यिक पत्रिकाएं बौद्धिक स्तर की हैं। इनमें स्त्री सहित सभी तरह के विमर्श छप रहे हैं। इनका भविष्य उज्ज्वल है।"
साहित्य में सोशल मीडिया की स्थिति के बारे में श्री अली ने अफ़सोस जाहिर करते हुये कहा "वहां कोई आलोचक या सम्पादक नहीं है। वहां कोई छलनी भी नहीं है। वहां अराजक लोकतंत्र कायम है। बड़ी मुश्किल से वहां कोई अच्छी रचना देखने को मिलती है। वहां अब विश्व स्तर की रचनाओं को अनुवाद के रूप में डाला जा रहा है। वहां तो ज्यादातर अख़बारी किस्म, रोजमर्रा और तात्कालिक घटनाओं की सतही कवितायें लिख दी जाती हैं, जिसका कोई भविष्य नहीं है। वहां कुछ ही अच्छी कवितायें आ रही है।"
(भेंटवार्ता और चित्र दिनेश ठक्कर बापा द्वारा)

Wednesday 31 October 2018

बाजारवाद की तरफ ढकेल दी गई हैं अब साहित्यिक पत्रिकाएं : रामकुमार



नामी कवि-कहानीकार से विशेष भेंटवार्ता
बिलासपुर, छत्तीसगढ़। "वर्तमान समय में साहित्यिक पत्रिकाओं को बाजारवाद की तरफ ढकेल दिया गया है। कुछ कालगति के कारण भी इनका स्तर गिरा है। हालांकि यह वक़्त भारतीय समाज का संक्रमणकाल है। इसकी अपनी जीवन पद्धति थी और उसके अपने जीवन मूल्य थे जो अब परिवर्तित किये जा रहे हैं। उसमें अपने होने को चिन्हित करने, रहने की जद्दोजहद, कशमकश है। अभी तक ऐसी कोई पत्रिका नहीं आ पाई है, जिसमें पूरे परिवार के लिए सब कुछ हो। साहित्यिक कही जाने वाली  पत्रिकाएं साहित्य की अभिरूचि के व्यक्तियों के लिए ही है। ऐसी कोई पत्रिका अभी नहीं है, जो पूरे समाज और हर तबके के लोगों को जोड़ सके।" यह चिंता नामी कवि-कहानीकार रामकुमार तिवारी ने मंगलवार, 30 अक्टूबर को न्यूज़ पोर्टल "एएम पीएम  टाइम्स" को दी गई विशेष भेंटवार्ता के दौरान व्यक्त की।
संजोई हुई स्मृतियों को ताज़ा करते हुए बिलासपुरवासी श्री तिवारी ने बताया कि, "जब कभी मैं अपने लेखकीय जीवन के बारे में सोचता हूँ तो मुझे आश्चर्य होता है कि इस क्षेत्र में मैं कैसे आ गया। मेरे आसपास, मेरे परिवार और न ही मेरी शिक्षा में साहित्य के लिए कोई जगह थी। नौकरीपेशा होने के कारण जब मैं स्थानांतरित होकर सरगुजा जिले रामानुजगंज कसबे में पहुंचा तो यहीं से लेखन की शुरूआत हुई। यह कस्बा प्यारा, सुंदर, नैसर्गिक और आत्मीयता से लबरेज़ था। दरअसल मुझे तो यहां विभागीय रूप से "काला पानी" सजा की तरह भेजा गया था। लेकिन कुछ ऐसा संयोग बना कि वहीं रहते हुए लेखन कार्य शुरू हुआ। वह एक बहुत बड़ी नाटकीय और रोचक घटना है, जिसे मैं कभी विस्तार से किसी लंबी कहानी या उपन्यास में लिखूंगा। खैर, वहां रहकर मैं अखबारों के रविवारी पृष्ठों को पलटते हुए लेखन की ओर आकृष्ट हुआ। लेखन को जाना, समझा। वहां धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी जैसी पत्रिकाएं आती थी। इसी बीच मासिक पत्रिका "कादम्बिनी " ने अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता (वर्ष 1990) आयोजित की। यह 35 वर्ष से कम उम्र के कहानीकारों के लिए थी। मेरे ज़ेहन में एक कहानी थी। रात में उसे लिखा और सुबह कादम्बिनी को पोस्ट कर दिया। कहानी का शीर्षक था "सुकून"। इसे सर्वश्रेष्ठ कहानी का पुरस्कार मिला। यह मेरे जीवन की पहली रचना थी, जो प्रकाशित हुई और पुरस्कृत भी। इसके बाद मुझे बहुत सारे पत्र मिले, जो मैंने सम्हाल कर रखे हैं। वास्तव में मैं तो कहानीकार बनना ही नहीं चाहता था। मैं तो कविताओं की ओर आकृष्ट हुआ था। इसलिए रजिस्टर में उसे लिखता रहता था। जो एक तरह से मेरे लिए "वागले की दुनिया" जैसी थी। बाद में उन कविताओं का संग्रह प्रकाशित भी हुआ जिसका नाम था "जाने से पहले मैं जाऊँगा"। मेरी पहली पुस्तक बतौर यह संकलन वर्ष 1989 में समीकरण प्रकाशन, हरपालपुर, छतरपुर (म.प्र.) से प्रकाशित हुआ था। इसमें संवेदनाओं का खरापन और उसका छायांकन है, जो आज भी मुझे गहरी अनुभूति देता है। फिर कुछ समय बाद मेरे लेखन का विस्तार हुआ। जब भोपाल गया, तो वहां के साहित्यिक वातावरण से परिचित हुआ। राजेश जोशी, नवीन सागर जैसे साहित्यकारों से परिचय हुआ। नवीन सागर से तो साहित्यिक रिश्ता गहरा हो गया। कादम्बिनी वाली मेरी कहानी से वे प्रभावित थे। चार पांच साल बाद जब उनसे मिला तो नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए वे पूछे "कहानी लिखना क्यों छोड़ दिए हो?" मैंने जवाब दिया "नहीं छोड़ी है"। फिर भी उन्होंने चेतावनी भरे लहज़े में कहा "अगली बार आना तो कहानियां लिख कर आना, वरना मत आना।" उनका दबाव था। कुछ कहानियां मेरे जेहन में थी, जिसे लिखता रहा। पत्रिका "पहल" में प्रकाशित कहानी क़ुतुब एक्सप्रेस को वर्ष 2000 का क्रियेटिव फिक्शन के लिए महत्वपूर्ण कथा पुरकार भी मिला। इस तरह अप्रत्याशित रूप से कहानी कहानी की लेखन यात्रा आज भी जारी है। कम लिखता हूँ। लेकिन वर्ष में एक दो कहानी जरूर लिखता हूँ।"
रामकुमार तिवारी से जब यह पूछा गया कि आप कविता, कहानी में शिल्प को कितना महत्व देते हैं? तो उन्होंने कहा "शिल्प का महत्व तो होता है। जैसे शरीर पांच तत्वों से बना होता है वैसे ही साहित्य सृजन के लिए भी विविध तत्व आवश्यक होते हैं। उसमें शिल्प के अलावा भाषा, कथ्य सभी बराबर रूप से महत्वपूर्ण होते हैं। हालांकि कभी कभी विमर्शों के तहत रचनाओं का कम ज्यादा आंकलन किया जाता है, जो अनावश्यक है। मेरा मानना है कि साहित्य में नयापन हो, उसमें अपने समय का पृष्ठ तनाव हो, उस समय के अभाव का प्रकाश बोध हो, मानवीयकरण हो। रचनाओं में मात्रा ज्ञान के साथ सब चीजें जरूरी है, वरना  वह असन्तुलित हो जाती है।"
धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान, सारिका जैसी लोकप्रिय पत्रिकाओं के बंद हो जाने बाद रिक्त हुए साहित्यिक स्थान को क्या वर्तमान की पत्रिकाएं पूर्ण कर पा रही हैं? इसके उत्तर में श्री तिवारी ने दुःख प्रकट करते हुए कहा "जो रिश्ता समाज के साथ था, वो टूट गया। जो कभी धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि पत्रिकाएं रिक्तता को भरा करती थी। निहायत घरेलू परिवार, शिक्षारत व्यक्ति, या कहें हर उम्र के लोगों के लिए ये सरणी बनी हुई थी। विकासशील देश में होने वाले संक्रमण का असर हमारे यहां भी हुआ है। इस संक्रमण काल से हमारा समाज भी गुजर रहा है। पत्रिका नवनीत, कादम्बिनी निकल तो रही है, परंतु उसे पढ़ने वाले वैसे नहीं रहे। मुझे लगता है कि एक दो दशक तक ये दौर चलेगा। इसके बाद फिर से लोग छपे हुए अक्षर की ओर लौटेंगे।"
सोशल मीडिया का यह दौर साहित्य जगत के लिए कितना उपयोगी है? उनका जवाब उम्मीद भरा था - "सोशल मीडिया ने एक तरह से सकारात्मक स्पेस दिया है। जिनके लिए मीडिया में स्पेस नहीं था, वे अब यहां अपने रचे हुए को रख पा रहे हैं, दिखा पा रहे हैं। यह सब लोकतांत्रिक ढंग से अच्छा है, लेकिन रही बात इसके परिष्कार की, तो यह कहा जा सकता है कि इसका दुरूपयोग भी हो रहा है। इसके ज़रिये आत्मप्रशंसा भी हो रही है। यह माध्यम आत्म मुग्धता का भी शिकार हो रहा है। बहुत सारा अनर्गल है। यह लोगों का समय खा रहा है। इसकी लत भी लग रही है। फिर भी उम्मीद है कि उससे लोग धीरे धीरे उबरेंगे। आगे चल कर लोग उसका सकारात्मक उपयोग करना जानेंगे, करेंगे। मुझे पूरा भरोसा है कि आने वाले समय का यह सकारात्मक साधन होगा।"
1 फरवरी 1961 को उत्तरप्रदेश के ग्राम तेइया, महोबा में जन्मे रामकुमार तिवारी ने छतरपुर (म.प्र.) से सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया था। इनका दूसरा काव्य संग्रह "कोई मेरी फोटो ले रहा है" वर्ष 2008 में सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर से प्रकाशित हुआ था। साक्षात्कार, जनसत्ता, पहल, वागर्थ, समकालीन भारतीय साहित्य, कृति ओर, वसुधा, उत्तर प्रदेश, आजकल, वर्तमान साहित्य, उद्भावना, अक्षर पर्व, बीज की आवाज़ आदि पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं का यह उम्दा संकलन है। वर्ष 1991 में आकाशवाणी रिक्रिएशन क्लब, भोपाल द्वारा प्रकाशित काव्य संग्रह "बीज की आवाज़" में इनकी भी कवितायें शामिल की गई थी। यह 1980 के बाद आये दस कवियों के चयन की पुस्तिका थी।  चयन और भूमिका राजेश जोशी की थी। वर्ष 2000 में कथा, नई दिल्ली द्वारा "कथा- प्राइज स्टोरीज वॉल्यूम 10" प्रकाशित किया गया था। इसमें इनकी पुरस्कृत कहानी क़ुतुब एक्सप्रेस का अंग्रेजी अनुवाद शामिल था, जो सारा राय द्वारा अनुदित था। वर्ष 2013 में कहानी संग्रह "क़ुतुब एक्सप्रेस" सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर से प्रकाशित हुआ था। वर्ष 2018 में केलिबर पब्लिकेशन, पटियाला, पंजाब द्वारा  कविताओं का संग्रह "आसमान को सूरज की याद नहीं" का पंजाबी में अनुवाद (जगदीप सिद्धू द्वारा अनुदित) प्रकाशित हुआ था। रामकुमार तिवारी का नया काव्य संग्रह "धरती पर जीवन सोया था" शीघ्र छप कर आने वाला है। उन्होंने अथिति सम्पादक बतौर अपनी पहचान भी बनाई है। नवम्बर,  2007 में मासिक पत्रिका "कथादेश" के नवीन सागर विशेषांक के वे अथिति सम्पादक थे।
रामकुमार तिवारी अपने साहित्य सृजन को लेकर बेहद गंभीर रहते हैं। उन्होंने अपने पहले काव्य संग्रह में "मेरी बात" के तहत लिखा था कि "रचनाक्रम के प्रयास में मेरा उद्देश्य रहा है कि कविता को सतहीकरण से बचाते हुए उसका सहज सरल स्वरूप ही सामने आये। कविता और पाठक के बीच भाषा की खाई न रह पाये। पाठक कविता को मुझसे ज्यादा प्रत्यक्ष होकर अनुभूत कर सके।" इनके दूसरे काव्य संग्रह "कोई मेरी फोटो ले रहा है" की भूमिका में विष्णु खरे ने भी लिखा था "मानवीय उपस्थिति के बिना आज कविता लिखना असम्भव सा है। लेकिन राम कुमार तिवारी के काव्य में एक और बात जो चौकाती है, वह उसमें प्रकृति की अपेक्षाकृत प्रचुर उपस्थिति है। सूर्य, चंद्र, धरती, आकाश, तारे, पहाड़, नदी, जंगल, पेड़, पक्षी, घाटी, रेत, मरुस्थल आदि से कवि ऐसा सृष्टि-चित्र रचता है जो अपरिचित प्रकृति चित्रण नहीं है, बल्कि कवि के "स्व" एवं "प्रकृति" के "अन्य" के बीच कभी भावनात्मक तो कभी चिंतनशील आवाजाही है।"
इस आवाजाही के दरम्यान रामकुमार तिवारी अपने पहले काव्य संग्रह "जाने से पहले मैं जाऊंगा" में इसी शीर्षक की कविता में अपनी जिज्ञासा और इच्छा को अत्यंत मार्मिक तरीके से लिखते हैं -"जाने से पहले मैं जाऊँगा/ कोयल के पास/ यह जानने कि तुमने/ कौए से अलग पहचान/ कैसे बनाई?/ जाने से पहले मैं जाऊँगा/ झरने के पास/ यह जानने कि तुम/ नीचे गिर कर भी कैसे पा लेते हो/ नव-रूप, नव-गीत, नव-गति?/ कैसे हो जाती/ तुम्हारी ऊर्जा गुणित/ जाने से पहले मैं जाऊँगा/ आले के पास/ यह जानने कि तुम कैसे/ दीये की सारी कालिख स्वयं लेकर/ सारा प्रकाश कमरे को दे देते हो/ जाने से पहले मैं जाऊँगा/ कछुए के पास/ यह जानने कि तुम कैसे?/ दौड़ में खरगोश से/ जीत गए थे/ जाने से पहले मैं जाऊँगा/ खरगोश के पास/ यह जानने कि तुम कैसे/ दौड़ में कछुए से/ हार गए थे?/ जाने से पहले मैं जाऊँगा/ ऊँट के पास/ यह जानने कि तुमको/ रेगिस्तान का जहाज क्यों कहते?/ जाने से पहले मैं जाऊँगा/ नेल्सन मंडेला के पास/ यह जानने कि बंद मुट्ठी में क्या है?/ जाने पहले मैं जाऊँगा/ इस दुनिया से कूच करते/ किसी आदमी के पास/ यह जानने कि तुम/ इतनी लम्बी यात्रा पर जा रहे हो/ अपने साथ क्या-क्या ले जा रहे हो/ जाने से पहले मैं जाऊँगा/ अपने पास/ यह जानने कि/ मैं यहां क्यों आया हूँ?"
(भेंटवार्ता और चित्र दिनेश ठक्कर बापा द्वारा)

Tuesday 30 October 2018

साहित्य में आम आदमी की संवेदनाएं और पीड़ा हो : नथमल



वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार से विशेष साक्षात्कार
साहित्य में आम आदमी की संवेदनाओं और उसकी  पीड़ा को उभारना आवश्यक है : नथमल शर्मा
बिलासपुर, छत्तीसगढ़। "साहित्य में आम आदमी की संवेदनाओं और उसकी पीड़ा को उभारना आवश्यक है। एक संवेदनशील रचनाकार अपने आसपास, गाँव, शहर, समाज पर जब लिखता है, तब वह इसका ध्यान रखता है। जब तक व्यक्ति का श्रम, उसकी पीड़ा, समाज का दर्द, समाज को बदलने की चाहत कविता या कहानियों में नहीं झलकेगा, तब तक वह सार्थक साहित्य नहीं कहा जा सकता।" यह विचार वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार श्री नथमल शर्मा ने सोमवार, 29 अक्टूबर को न्यूज़ पोर्टल "एएम पीएम टाइम्स" को दिए गए विशेष साक्षात्कार के दौरान व्यक्त किये।
10 अप्रैल 1956 को बालाघाट, मध्यप्रदेश में जन्मे श्री नथमल शर्मा वाणिज्य में स्नातक हैं। छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता ही इनका मुख्य कर्म रहा है। इन्होंने अपने 41 बरस पत्रकारिता के क्षेत्र को संवेदनशीलता और सामाजिक सरोकारों के साथ समर्पित किये है। पत्रकारिता  के साथ ही पत्रकार और साहित्य आंदोलन से इनका गहरा जुड़ाव रहा है। दैनिक देशबन्धु के बिलासपुर संस्करण को स्थापित करने में बतौर सम्पादक इनका महती योगदान रहा है। वर्ष 1988 में इन्हें बिलासपुर जिले में मरवाही के निकट रजत जयंती ग्राम बस्ती बगरा की ग्राउण्ड रिपोर्टिंग के लिए अखिल भारतीय स्टेट्समेन ग्रामीण रिपोर्टिंग पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वे  विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विद्यार्थियों के लिए अध्यापन कार्य भी करते रहे हैं। बिलासपुर को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले श्री शर्मा बिलासपुर, रायपुर और शहडोल से प्रकाशित होने वाले दैनिक इवनिंग टाइम्स के प्रधान सम्पादक हैं। वे प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव, छत्तीसगढ़ (2013 से) तथा राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष (2016 से) भी हैं। बरसों पहले जब भीष्म साहनी बिलासपुर आये थे, तब उनके हाथों इन्हें अपने प्रथम काव्य संग्रह "सूरज को देखो" के विमोचन का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। इसका प्रकाशन प्रगतिशील लेखक संघ, बिलासपुर ने किया था। इनका दूसरा काव्य संग्रह है "उसकी आँखों में समुद्र ढूँढता रहा" (प्रथम संस्करण वर्ष 2016) । इसके प्रकाशक प्रगतिशील लेखक संघ, नई दिल्ली और मुख्य वितरक पीपुल्स पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली हैं। श्री शर्मा ने कुछ कहानियां भी लिखी हैं, जो प्रकाशन हेतु गई हैं। इनका एक नया काव्य संग्रह और लेखों के दो संग्रह प्रकाशनाधीन हैं।
श्री शर्मा की सृजित कविताओं, कहानियों, अख़बारी टिप्पणियों और संपादकीय में सामाजिक सरोकारों की प्रधानता रहती है। उनका दर्द, आक्रोश कविता "हम छत्तीसगढ़ के लोग" में झलकता भी है "पूर्वजों की आँखें देखती हैं/ कहीं दूर से/ अपने खेतों को कारखाना बनते/ और/ देखती हैं/ अपने ही खेतों में/ अपने बच्चों को  मजदूरी करते/ टपक पड़ते हैं आँसू तब/ वे आँसू मिल जाते हैं/ महानदी की धार में/ सबके आँसू लिए बहती है/महानदी/हम छत्तीसगढ़ के लोग/ महानदी में आँसू बन कर बह रहे हैं/ तरक्की की कीमत चुका रहे हैं/ अपनी धरती में/ सोना, कोयला, सागौन, पलाश, हीरा/होने की कीमत चुका रहे हैं/सोना हो रहे हैं वे लोग/कोयला हो रहे हैं हम लोग/हो भी जाना चाहते हैं/हम कोयला/कोयले की तरह/दहक भी जाना चाहते हैं/हम छत्तीसगढ़ के लोग/जानते हो तुम कि/दहकेंगे हम/इसलिए तेजी से खोद रहे हो/और लारियों में भर -भर कर/लगातार दूर भेज रहे हो/हम छत्तीसगढ़ के लोग/जंगलों में बारूद बनना नहीं चाहते/हम तो/जंगल में ज़िन्दगी ढूँढ़ते हैं"।
नथमल शर्मा की कविताओं का हर कोई प्रशंसक है। जाने माने कथाकार तेजिन्दर ने इनके दूसरे काव्य संग्रह की प्रस्तावना में लिखा था "नथमल शर्मा की कविता की सबसे बड़ी ताकत यह है कि वे मनुष्य और मनुष्यता के लिए लिखी गई कवितायें है जो सीधे पाठक के साथ संवाद करती है। अपनी कविता समुद्र में वे उस बालक के साथ भी संवाद करते नज़र आते हैं, जो सीप, मोती और शंख बेचने वाले बच्चों के झुण्ड में शामिल है। वे उन बच्चों की आँखों में समुद्र ढूँढ़ते हैं और यह एक बात उनकी कविता को अनंत विस्तार देती है।"
कविताओं की ताकत को रेखांकित करते हुए श्री शर्मा अपनी भेंटवार्ता के दौरान कहते भी हैं "कविता बहुत कुछ कहती है। कई बार कविता सब कुछ कह जाती है। दरअसल कविता जहां ख़त्म होती है, बात वहीं से शुरू होती है। समाज को देखने दुनिया को खंगालने की ताकत कविता की भी है। ये शब्दों की ताकत है। ये कविताओं का प्रभाव है कि जो ज़िन्दगी को बनाती है, संवारती है। मुझे लगता है कि पत्रकारिता करते करते संवेदनशीलता भीतर बहती रही। इस संवेदनशीलता ने ही खबरों के अलावा कुछ रच दिया, जिस मेरेे मित्र कवितायें कहते हैं। पत्रकारिता की जद्दोजहद, समाज, दुनिया, राजनीति को देखने की उलझनें भी ज़िन्दगी में रही। इस बीच कविताओं के साथ दोस्ती हुई। उसके बाद निरन्तर सृजन हो रहा है।"
प्रगतिशील कविताओं के जारी लेखन कर्म से संतुष्टि बाबत उन्होंने स्पष्ट किया कि, "सवाल प्रगतिशीलता का नहीं बल्कि मानव, मनुष्यता के लिए क्या लिखा जा रहा है, उसका होना चाहिए। रचनाओं को किसी दायरे में बाँध नहीं सकते। हाँ, यह बात सही है कि हम परम्पराओं को तोड़ते हैं। जड़ चीजों पर प्रहार करते हैं। हम समाज, देश, दुनिया को बेहतर बनाने की कोशिश करते हैं। रचनाओं के माध्यम से उसे उकेरते हैं। शायद वही प्रगतिशीलता है। जहां तक सन्तुष्ट होने की बात है तो मेरा मानना है कि अगर जिस दिन कोई रचनाकार संतुष्ट हो गया तो उसी दिन उसका रचना कर्म बंद हो जाएगा। लगातार लिखते जाना हमारा काम है। मुझे लगता है कि लिखने से पहले ज्यादा पढ़ना भी हमारा काम है।"
आपने अपनी कविताओं में किन विषयों को ज्यादा फोकस किया है? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि,  "संवेदनशील रचनाकार किसी एक विषय पर बात नहीं कर सकता। वह सब पर लिखता है। कविताओं में दुनिया, नदियां, चिड़ियाँ, पहाड़, समुद्र ये सब प्रतीक हैं। दरअसल कविताओं में मनुष्य की संवेदनाएं होती हैं। समाज की पीड़ा होती है। वह समय बीत गया जब नैन नक्श, श्रृंगार पर ही लिखने को कवितायें कहते थे।"
सोशल मीडिया के ज़रिये लिखी जाने वाली कविताओं के स्तर पर इनका कहना है कि, "सोशल मीडिया का दौर एक तरह से अच्छा भी है। इसने एक बड़ा कैनवास रचनाकारों के सामने रखा है। साथ ही बुराइयां भी हैं। इस पर बिना सिर पैर की चीजें भी आ रही हैं। सवाल यह है कि इसमें हम क्या बोल रहे है, बता क्या रहे हौं, लिख क्या रहे है? जो भी प्रस्तुत, सम्प्रेषित हो वह स्तरीय और सार्थक होना चाहिए।"
पिछले एक दशक से जो साहित्य सृजन हो रहा है, उसमें समाज के सरोकारों से लेकर आम आदमी की बात को कितना समाहित किया जा रहा है?, श्री शर्मा ने कहा "अगर आम आदमी की बात नहीं होती है तो वह सही रचनाएं नहीं कही जा सकती। सवाल यह है कि हम किस नज़रिये से लोगों को देख रहे हैं। अपनी रचनाओं में किस नज़रिये को पेश कर रहे हैं। उसमें कितनी संवेदनशीलता है।"
साहित्यिक संस्थाओं और सरकारी साहित्य अकादमी द्वारा प्रदत्त किये जाने वाले पुरस्कारों की प्रक्रिया को आड़े हाथ लेते हुए उन्होंने कहा कि "हिन्दुस्तान में एक शब्द है जुगाड़। अगर आप जुगाड़ जानते हैं तो ये पुरस्कार आसानी से हासिल कर सकते हैं। उस पर अब बहुत ज्यादा चर्चा करने की जरूरत नहीं है। अब जागरूक लेखक, पाठक सब असलियत जान गए हैं। मुझे यह भी नहीं लगता कि पुरस्कार प्राप्त करने से कोई रचनाकार बड़ा हो जाता है। बहुत सारे रचनाकार पुरस्कार प्राप्त कर छोटे हुए हैं। साहित्य या पाठकों को इस तरह के किसी सील ठप्पे की जरूरत भी नहीं है।"
शैक्षणिक संस्थाओं के पाठ्यक्रम में किनकी साहित्यिक रचनाओं को ज्यादा शामिल किया जाना चाहिए?, श्री शर्मा ने कहा "हाँ, यह महत्वपूर्ण सवाल है। कहानीकारों में प्रेमचंद और कवियों में मुक्तिबोध जैसे साहित्यकारों का उदाहरण देना चाहूँगा। जिनकी रचनाओं को स्कूल से लेकर कॉलेज विश्विद्यालय तक के पाठ्यक्रम में अधिक शामिल करना चाहिए, क्योंकि वे हमारे समाज का आइना हैं। वे इतिहास का बोध करा रहे हैं। वे आगे चलने के राह दिखा रहे हैं। इन पर लगातार काम होना चाहिए। अगर युवा पीढ़ी के साथ टकरा देने का माद्दा हमारे में नहीं है तो रचनाकर्म करने का कोई मतलब नहीं है।"
(भेंटवार्ता और चित्र दिनेश ठक्कर बापा द्वारा)

Monday 29 October 2018

सोशल मीडिया आने के बाद साहित्यकारों को बहुत स्पेस मिला : द्वारिका



बिलासपुर, छत्तीसगढ़। "सोशल मीडिया आने के बाद ही साहित्यकारों को बहुत स्पेस मिला है। उसके पहले तो वे संपादकों की दृष्टि-कुदृष्टि पर निर्भर थे। अब ऐसी कोई परेशानी नहीं है। आप अपनी बात लिखिए। फेसबुक या सोशल, इलेक्ट्रानिक मीडिया में डालिए। पाठक खुद तय करके बताते हैं कि ये उनको पसंद है या नहीं।" यह विचार देश के प्रसिद्ध प्रबंधन गुरु और साहित्यकार द्वारिका प्रसाद अग्रवाल ने रविवार, 28 अक्टूबर को न्यूज़ पोर्टल "एएम पीएम टाइम्स" से विशेष भेंटवार्ता के दौरान व्यक्त किये।
18 दिसम्बर, 1947 को जन्में श्री द्वारिका प्रसाद अग्रवाल हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर हैं। वे जूनियर चेम्बर इंटरनेशनल के सर्टिफाइड मेंबर ट्रेनर हैं। वे मानव-व्यवहार प्रबंधन और व्यक्तित्व विकास के अंतर्राष्ट्रीय प्रशिक्षक रहे हैं। अब साहित्य सृजन के क्षेत्र में भी वे सशक्त हस्ताक्षर माने जाते हैं। इन्होंने आत्मकथा लेखन की नई शैली विकसित की है। इनकी आत्मकथा के तीन खंड - "कहाँ शुरू कहाँ ख़त्म" (डायमंड पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली, वर्ष 2014), "पल पल ये पल" (बोधि प्रकाशन, जयपुर, वर्ष 2015, पुनर्मुद्रण वर्ष 2017) और "दुनिया रंग बिरंगी" (बोधि प्रकाशन, जयपुर, वर्ष 2016) प्रकाशित हो चुके हैं। ये सोशल मीडिया में भी बेहद चर्चित रहे हैं। इसके अलावा इसी वर्ष बोधि प्रकाशन से प्रकाशित कहानी संग्रह "याद किया दिल ने" और रश्मि प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित यात्रा वृत्तांत "मुसाफ़िर जाएगा कहाँ" भी पाठकों द्वारा प्रशंसित है। उपन्यास "मद्धम मद्धम" शीघ्र ही छप कर आने वाला है।
श्री अग्रवाल ने अपनी भेंटवार्ता के दौरान तमाम सवालों के जवाब बेबाकी से दिए। प्रबंधन गुरु से साहित्यकार बनने की वज़ह बताते हुए उन्होंने कहा कि अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के दो साधन मुख्य हैं। हम बोलें या लिखेँ। मैंने वर्ष 1992 से प्रशिक्षण कार्य शुरू किया जो वर्ष 2002 तक चला। वर्ष 2003 में जब मुझे मुँह का कैंसर हुआ तो बोलने में असुविधा होने लगी तो मैं लेखन के क्षेत्र में आ गया।"
जब उनसे यह पूछा गया कि जो लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं, वे आम तौर पर कई चीजों को छुपा लेते हैं। क्या आपने भी ऐसा ही किया है? तो उन्होंने सवाल मिश्रित जवाब दिया -"सब कुछ कैसे बताया जा सकता है?" प्रतिप्रश्न था - आपने क्या बताने की कोशिश की है? उनका दो टूक उत्तर था -"मैंने वो बताने की कोशिश की है, पाठकों के काम आ सके।" गौरतलब है कि श्री अग्रवाल ने अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में इस मुद्दे पर सफ़ाई देते हुए लिखा भी है कि "आत्मकथा लिखना नंगे हाथों से 440 वोल्ट का करंट छूने जैसा खतरनाक काम है। कथा सबकी होती है, लेकिन जब उसे सार्वजनिक रूप दिया जाता है तो वह चुनौतीपूर्ण हो जाती है। क्या बताएं, क्या न बताएं? बताएं तो किस तरह, छुपाएं तो कैसे? अतीत की घटनाओं का शब्द चित्रण, अपनी कमजोरियों और विशेषताओं का तटस्थ विवेचन, घटनाओं से जुड़े लोगों की निजता और भावनाओं का सम्मान ऐसा कार्य है, जैसे युद्ध क्षेत्र में योद्धा अपने प्राण देने को तैयार हो, लेकिन उसे सामने वाले के प्राण लेने में संकोच हो रहा हो।" वे यह भी लिखते हैं कि "मुझे क्या जरूरत है कि मैं निर्वस्त्र होकर बीच बाजार में खड़ा हो जाऊं, मात्र अहंकार की तुष्टि या आत्म प्रचार के लिए।" "बताना बहुत कुछ है, लेकिन सम्प्रेषण की बाधाएं हैं। शब्दों की विवशता भी है। मेरे सामने मुश्किल यह है कि मैंने जो आंसू बहाए हैं, उन्हें आपको कैसे दिखाऊं? मैंने जो खुशियां पाई हैं, उन्हें आपको कैसे महसूस कराऊं?" उन्होंने भावुक होकर यह भी लिखा है कि, "मेरे जीवन के अंतिम पड़ाव में जो कुछ सीखने में कसर रह गई थी, वह भी पूरी हो गई। आत्मकथा का तीसरा खण्ड "दुनिया रंग-बिरंगी" उन्हीं साँसों की आहट है, जो किसी भी क्षण रुकने के लिए आतुर है।" "दरअसल यह आत्मकथा "मैं" की नहीं, "हम" की है।
श्री अग्रवाल के साहित्य सृजन की लोकप्रियता में सोशल मीडिया के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। वे इसे खुले तौर पर स्वीकार भी करते हैं। सोशल मीडिया के वे हिमायती भी हैं। जब उनसे यह सवाल किया गया कि सोशल मीडिया के ज़रिये जो रचनाएं लिखी जा रहीं हैं, उनके स्तर से क्या आप संतुष्ट हैं? उन्होंने कहा "उनके स्तर की जांच करने वाला मैं कौन होता हूँ? मैं न्यायाधीश नहीं हूँ। उनके स्तर का आंकलन पाठक करेंगे। पाठक भी सब किस्म के होते हैं। जो घटिया स्तर के पाठक होंगे वे घटिया रचनाओं और जो उच्च स्तर के पाठक होंगे वे उसी स्तर को पसंद करेंगे।"
वर्तमान में सोशल मीडिया की ताकत को आप किस रूप में आंकते है? जवाब था -"यह बहुत मजबूत है। इसका असर देशव्यापी है। देखिये, हर व्यक्ति में दो प्रतिभाएं नैसर्गिक होती हैं। एक, साहित्य सृजन की और दूसरी, गायन की। वह कोशिश करता है कि उसे कोई ऐसा मंच मिले जहां वह अपने लिखे को बता सके और अपने गाने को सुना सके। फेसबुक, वाट्सएप आदि सोशल मीडिया के ऐसे साधन हैं, जिससे लोग अपनी बात खुल कर प्रस्तुत कर पा रहे हैं। उनका उत्साह बढ़ रहा है। उन्हें अपनी कमियों को सुधारने का मौक़ा भी मिल रहा है।"
साहित्य के क्षेत्र में बढ़ती खेमेबाजी पर प्रतिक्रियास्वरूप उन्होंने नाराज़गी व्यक्त करते हुए कहा कि "साहित्य के क्षेत्र में खेमेबाजी करना दुष्टों का काम है। उनको अपना काम करने दीजिए।" अधिकाँश पुराने नामी साहित्यकारों द्वारा नए साहित्यकारों को हतोत्साहित किये जाने पर श्री अग्रवाल ने तंज कसते हुए कहा कि, "साहित्य के क्षेत्र में जो स्थापित हो जाता है, वह मठाधीश हो जाता है। इसका कोई उपाय नहीं है।"
प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं द्वारा रचना प्रकाशन में बरते जाने वाले भेदभाव के बारे में उन्होंने कहा कि, "संपादकों के जो लोग परिचित होते हैं या जिनके लिए सिफ़ारिश होती है, वे उनको छपने का मौक़ा देते है। नए लोगों की बात उनको पसंद नहीं आई तो उन्हें मौक़ा नहीं देते हैं। उनके इस वर्चस्व को सोशल मीडिया ने ही तोड़ा है।"
साहित्य में वर्गीकरण विमर्श और अपने लोगों को ही  महत्व देने के सन्दर्भ में श्री अग्रवाल का मंतव्य था "जो लोग अपने और अपनों की बात को महत्व दे रहे हैं, तो इसमें कोई गलत नहीं है। लेकिन दूसरे के साहित्य को नीचा दिखा रहे हैं, उसका मखौल उड़ाते हैं, यह साहित्य के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है।" साहित्यिक गोष्ठी में भी नए साहित्यकारों की उपेक्षा के बारे में इनका कहना है कि, "ये तो होता ही है। मेरे ख्याल से इसका कोई उपाय नहीं है।"
आने वाला समय साहित्य के क्षेत्र के लिए कैसा होगा? इनका प्रत्युत्तर था "मुझे तो अच्छा लग रहा है। सोशल मीडिया और जो नए प्रकाशन गृह शुरू हुए हैं, वे हिन्दुस्तान में तेजी से उभरे हैं। वो बहुत मौक़ा दे रहे हैं।  लोगों की कृतियों को छाप कर पाठकों तक पहुंचा रहे हैं। मैं बहुत आशान्वित हूँ कि आने वाले दस वर्षों में हिंदी साहित्य में अच्छी प्रगति होगी। बड़ी क्रान्ति होने वाली। है।"
हिंदी सिनेमा में साहित्यिक कृतियों के महत्व को लेकर श्री अग्रवाल ने दावा किया कि, फिल्मों में इसे सदा महत्व दिया गया है। मदर इंडिया, मुग़ले आज़म, गोदान, , साहब बीबी ग़ुलाम जैसी फ़िल्में साहित्यिक कृतियों पर बनी थी। पहले भी काम हो रहा था। अब भी हो रहा है। जैसे जैसे साहित्यिक कृतियों के प्रति सिने निर्देशकों का रुझान बढ़ेगा तो साहित्य को महत्व मिलेगा। जो लोग साहित्य नहीं पढ़ते वे फिल्मों के माध्यम से साहित्य को जान पाएंगे और नए पाठक तैयार हो पाएंगे।"
टीवी सीरियल में साहित्यिक कृतियों के उपयोग के बारे में उनका कहना है कि, "अब तक साहित्यिक कृतियों पर जो धारावाहिक आये हैं, वो शानदार हैं। दूरदर्शन को रिप्लेस करने के बाद जो प्राइवेट चैनल आये उन्होंने इस मामले में उतना न्याय नहीं किया। कमी तो खटकती है। अब तो ज्यादातर गप्पबाजी चल रही है।"
प्रसिद्ध साहित्यकारों की कृतियों के नाम पर धारावाहिकों में कुछ अरसे बाद मनगढ़ंत कहानियों को परोसा जाता है, इस संबंध में श्री अग्रवाल ने कहा कि, "सीरियल के लेखकों को जो समझ में आता है, लिख देते हैं। निर्माता को समझ में आया बना देते हैं। सारा खेल रकम पर टिका है। फ़िल्म , सीरियल बनाना बहुत खर्चीला काम है। देखना पड़ता है कि क्या बिकेगा।"
साहित्य के क्षेत्र में आपकी भावी योजना क्या है? उन्होंने स्पष्ट किया कि "मैं कोई योजना नहीं बनाता। और न ही योजना बना कर लिखता हूँ। मुझे कई बार ऐसा लगता है कि जो कुछ लिखा वह मैंने नहीं लिखा। पता नहीं किसने मुझसे लिखवाया।"
(भेंटवार्ता और चित्र दिनेश ठक्कर बापा द्वारा)