Monday 5 November 2018

अराजक, स्याह समय में सच लिखना जोखिम भरा काम : डा. सक्सेना



नामचीन पत्रकार-साहित्यकार से ख़ास बातचीत
बिलासपुर, छत्तीसगढ़। "अराजक और स्याह समय में सच को लिखना बहुत जोखिम भरा काम होता है। वैसे भी ज़िंदगी अपने आप में एक जोखिम है। जहां तक व्यावसायिक और साहित्यिक पत्रिकाओं में अंतर का सवाल है, तो इन दोनों में काफी मूलभूत अंतर है। अंतर प्रयोजन और सरोकारों का है। आप मुनाफ़े के लिए कोई पत्रिका निकालते हैं, तो लोकहित और प्रतिबद्धता को बलाये ताक रख देते हैं। यह व्यावसायिक पत्रकारिता है। लेकिन यदि सरोकारों से जुड़ कर आप अधिनायकवाद और लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपनी भूमिका निभाना चाहते हैं, तो व्यावसायिक पत्रिका के जरिये अपने प्रयोजन, अभिष्ट साध नहीं सकते। साहित्यिक पत्रिका निकालने के लिए दुस्साहसिक रास्ता चुनना पड़ेगा। यह कठिन काम है।" यह विचार नामचीन पत्रकार-साहित्यकार डा. सुधीर सक्सेना ने बिलासपुर प्रवास पर  शनिवार, 3 नवम्बर को न्यूज़ पोर्टल "एएम पीएम टाइम्स" को दिए गए विशेष साक्षात्कार के दौरान व्यक्त किये।
 लखनऊ में जन्में डा. सक्सेना अभी दिल्ली में रहते हैं। वे वर्तमान में प्रसिद्ध सामयिक मासिक पत्रिका "दुनिया इन दिनों" के प्रधान सम्पादक हैं। पत्रकारिता और साहित्य जगत के वे महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। सामयिक पत्रिका "माया" से वे बतौर ब्यूरो प्रमुख, राजनैतिक सम्पादक लगभग ढाई दशक तक जुड़े रहे। बिलासपुर के दैनिक लोकस्वर से भी वे शुरूआती दिनों में जुड़े थे। इसके अलावा दैनिक महाकोशल, आज, जागरण आदि अख़बारों, संवाद समिति समाचार भारती, हिंदी पोर्टल वेब दुनिया, राज टीवी आदि से भी संबद्धता रही। वॉयस ऑफ अमेरिका के लिए भी वे नियमित रिपोर्टिंग करते हैं। लघु पत्रिका अभिव्यक्ति (नागपुर), अभी (कानपुर), और दैनिक साँझ तक (भोपाल) का सम्पादन भी किया। वे साप्ताहिक इंडिया न्यूज़ (दिल्ली) के संस्थापक सम्पादक और राष्ट्रीय हिंदी मेल (भोपाल) के सलाहकार सम्पादक  रहे हैं। डा. सक्सेना ने विज्ञान और पत्रकारिता में डिग्री, लोक प्रशासन और हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि, रूसी भाषा तथा ट्राइबल आर्ट्स एण्ड कल्चर में डिप्लोमा हासिल किया है। सबल्टर्न स्टडीज में इनकी गहरी रुचि रही है। इन्होंने आजादी की लड़ाई में आदिवासियों की शिरकत पर शोध कार्य कर पीएचडी की। बालकृष्ण शर्मा नवीन फेलोशिप प्राप्त डा. सक्सेना ने उज़्बेकिस्तान, अर्मीनिया, रूस समेत पूर्व सोवियत संघ, नेपाल, हांगकांग, चीन, जापान, मलेशिया, थाईलैंड, साउथ अफ्रीका, मिस्र, इथियोपिया, इस्रायल, तुर्की, श्रीलंका आदि देशों की यात्राएं कर विविध अनुभव हासिल किये हैं।
पत्रकारिता के साथ ही साहित्य सृजन के क्षेत्र में भी वे निरन्तर जुटे रहते हैं। कविता, इतिहास लेखन, अनुवाद और सम्पादन में वे एक साथ सक्रिय हैं। इनकी लंबी कविताओं की पुस्तक "बीसवीं सदी, इक्कसवीं सदी", "धूसर में बिलासपुर" बेहद चर्चित रही। कविता संग्रह "बहुत दिनों के बाद, समरकंद में बाबर, काल को भी नहीं पता, राज जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी, किरच-किरच यक़ीन, ईश्वर हां नहीं तो तथा कुछ भी नहीं अंतिम" पर देश भर काफी चर्चा हुई। अनुदित कृति "कभी न छीने काल (कायसिन कुलियेव), स्मृति गाथा (येगोर इसायेव), एक अव्वल चमत्कार (सदी की पोलिश कवितायें) के अतिरिक्त सह अनुवाद बतौर "अर्द्ध रात्रि में पक्षी की आवाज़ (ओसिप मंदेलश्ताम - अनिल जनविजय के साथ) ब्राजील की कवितायें सराही गई। कविता पोस्टर : स्टीफेन स्पेंडर की कवितायें भी समालोचकों ने पसन्द की। गद्य कृतियाँ "मध्य प्रदेश में आजादी की लड़ाई और आदिवासी, भूमकाल, ऐसे आये गांधी, छत्तीसगढ़ में गांधी, बस्तर का भूचाल, गुण्डाधूर : युयुत्सु महानायक" की चर्चा आज भी होती है। डा. सुधीर सक्सेना को सोमदत्त सम्मान, पुश्किन अवार्ड, माधवराव सप्रे पुरस्कार, वागेश्वरी अलंकरण, जिपलेप, सृजन गाथा, त्रिसुगंधी, लाल बलदेव सिंह और प्रमोद वर्मा सम्मान से नवाज़ा जा चुका है।
 लंबी कविता की पुस्तक "धूसर में बिलासपुर" (प्रकाशक - लोकमित्र, दिल्ली, वर्ष 2015) की प्रस्तावना में डा. सुधीर सक्सेना ने लिखा है -"इसमें बिलासपुर की याद है, बिलासपुर के अक्स हैं, सपने हैं, चेहरे हैं, मोहरे हैं, मोहल्ले हैं, बदलती फिज़ा और बहुत कुछ है। मैं बिलासपुर आया था सन् 80 के शुरूआती दिनों में। यकीन कीजिये कि मैं फिर यहां से गया ही नहीं। मैं यहीं छूट गया। भोपाल और दिल्ली गया मैं तबसे यहीं छूटा हुआ हूँ। यहां से कहीं और न जाने के लिए। अपनत्व और यकीन की सिमटती दुनिया में बिलासपुर एक यकीन है। बचा हुआ अपनापन है। श्वेत और श्याम के दरम्यां एक खूबसूरतअत धूसरपन है। वह खूबसूरत लगता है कि वहां न तो चौंधियाती सफेदी है न ही डरावना कालापन।"
उन्होंने अपनी इस लम्बी कविता में बिलासपुर के राजनैतिक परिदृश्य पर लिखा है -"कविता की आँख से देखो तो/ सारे के सारे पोस्टर धूसर हैं/ धूसर हैं सारे होर्डिंग्स/ धूसर हैं सारे चेहरे/ और तो और, धूसर है सारा बिलासपुर/ आज से नहीं/ मुद्दत से/ सियासत शगल है शहर का/ शहर की तासीर में घुली है सियासत/ जैसे हवा में घुली रहती है गंध/ या कि पानी में गुंथी रहती है/ हाइड्रोजन और ऑक्सीजन/ या फिर प्याज में बसी रहती है गजब की धांस/ शहर में कमी नहीं है पोस्टर-ब्वॉयों की/ और तो और पोस्टर-गर्ल भी नहीं गैरमौजूद/ गौर से देखें तो/ पोस्टर में गोलमटोल बेमूँछ चेहरा धूसर है/ और धूसर है दर्प में डूबे राजसी चेहरे की/ कभी दांव पर लगी ताव खाई मूँछें/ धूसर है सारे पौर/ यहां तक कि महापौर भी।"
बिलासपुर के पुराने मित्र पत्रकार, साहित्यकार, कलाविद, नेताओं पर भी उन्होंने लिखा है -" वो देखो/ शाम के अखबार के बोगदे में सवार हैं नथमल/ प्रताप ठाकुर के कानों में अभी भी गूंजती है/ क्लिक-क्लिक की आवाज/ लोकल खबरों की गर्माहट में भीगे हैं/ प्राण चड्ढा, दिनेश ठक्कर और सईद खान/ बिलासपुर के कर्ण कुहर में तैरते हैं/ श्यामलाल चतुर्वेदी के कोमल बैन/ शाकिर अली के बैग में है/ फाइलें कम, किताबें ज्यादा/ वो देखो, विनोद चौबे की याद में/ किस कदर डबडबाये हैं नगर के नैन/ वो देखो/ पाली में प्राण-प्रतिष्ठा के लिए/ अभी भी किस कदर बेचैन हैं कथाकार सतीश जायसवाल/ वो देखो/ राउत-महोत्सव के लिए कालीचरण यादव का समर्पण/ अमल में भले नहीं, अलबत्ता जेहन में/ फड़फड़ाती शहर के उन्नयन की योजनाएं लिए/ फिरते हैं डा. बद्री जायसवाल/ क्षिति की चिंता में डूबी/ क्षितिज के पार देखती दिखाई देती है/ बाज वक्त/ वाणी राव/ सुनो/ सूरज बाई खांडे ने अभी-अभी छेड़ी है/ भरथरी की तान/ उसी के वास्ते ठिठकी है हवा/ पुरखों के आशीर्वचन झरते हैं आसमान से।"
इस किताब पर अपनी टिप्पणी में वरिष्ठ साहित्यकार राजेश जोशी ने लिखा है-"यह एक शहर की स्मृतियों का एलबम है। एक ऐसा एलबम जिसमें कविता की बीनाई से देखे गए चित्र हैं। इतिहास और पौराणिक आख्यानों से लेकर आज तक के अनेक चित्र। कविता शहर के बदलते हुए समय की बही को बाँचती है। इस बही में अंकित हैं अनेक उजले और स्याह नाम।"
उल्लेखनीय है कि डा. सुधीर सक्सेना के व्यक्तित्व और कृतित्व पर पत्रिका "दुनिया इन दिनों" के एसोशिएट सम्पादक (वरिष्ठ) रईस अहमद लाली के सम्पादन में  पुस्तक "जैसे धूप में घना साया" (प्रकाशक - लोकमित्र, वर्ष 2018) प्रकाशित हुई है। इसमें 24 रचनाकारों के आलेख हैं। इसमें डा. सुधीर सक्सेना के महत्व को विश्लेषित करते हुए रईस अहमद लाली ने लिखा है-"उनका साहित्यिक अवदान किसी भी कथित बड़े साहित्यकार या जनवादी-लोकधर्मी परम्परा के वाहक कवियों से किसी भी हद में कमतर नहीं। लोग भले ही आज अपनी अपनी हदबंदियों के कारण, अपने अपने नफे-नुकसान के चलते इसे स्वीकार करने से कतरा रहे हैं, लेकिन कभी न कभी उन्हें इस सच्चाई को स्वीकार करना ही होगा। सुधीर सक्सेना ने कभी अपने आपको, अपनी रचना को नारों तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने लोक के विस्तार में चीजों को देखने और उसे कलमबंद करने की कोशिश की है।"
डा. सुधीर सक्सेना की काव्य-कृति "ईश्वर हाँ, नहीं ... तो" से भी स्पष्ट होता है कि वे खुले विचारों के हैं। प्रख्यात चित्रकार-लेखक अखिलेश ने इसमें अपनी टिप्पणी में लिखा है -" इन कविताओं में एक सच्चाई और सीधे संवाद की कोशिश दिखाई देती है। वे ईश्वर से झगड़ा करते हुए अपने होने के बारे में भी है। इन कविताओं का देशकाल शब्द में है, किसी बाहरी सन्दर्भ में नहीं। इन कविताओं की आतंरिक संरचना मुखर होकर पाठक को व्यथित करती है।ये कवितायें पूर्णतः एक भारतीय मनस की कल्पना है।"
"ईश्वर हाँ, नहीं ... तो" के अध्याय तेरह में डा. सुधीर सक्सेना लिखते हैं "खोटे सिक्कों के वर्चस्व के युग में/ माना कि हम तुम्हें ख़ारिज नहीं कर सकते/ प्रभु ! / किन्तु कितना कुछ शको-शुबहा है/ तुम्हें लेकर/ सदियों की मुंडेर पर/ सब्ज़े सा उगा हुआ/ पोथियों में तुम नहीं/ तुम्हारे चमत्कार हैं/ मंदिरों में तुम नहीं/ तुम्हारे बुत हैं/ इबादतगाहों में नहीं हैं, तुम्हारे होने की तस्वीर/ मठों में मंत्र और यंत्र हैं/ तुम नहीं, तुम्हारे अलग-अलग आसनों की छवियाँ/ कहीं भी/ रोग-शोक दूर नहीं होता/ दूर नहीं होती विपत्ति या विपन्नता/ न जाने कौन सी शती थी/ जब ईश्वरीय शक्तियों से तुम/ च्युत हुए/ ईश्वर ! "
डा. सुधीर सक्सेना अपने साहित्य सृजन में जितने स्पष्टवादी हैं, उतने ही स्पष्ट विचार उन्होंने भेंटवार्ता के दौरान भी व्यक्त किये। अपनी सृजन यात्रा के बारे में उन्होंने बताया कि, "सफ़र की शुरूआत करीब 63 साल पहले लखनऊ से होती है, जहां मैंने जन्म लिया था। मेरे परिवार में साहित्य, कला, संस्कृति का माहौल था। पिताजी, चाचाजी स्वयं कवि थे। वे पारम्परिक छंदबद्ध कविता से जुड़े थे। पिताजी की कवितायें पत्रिका "विशाल भारत" आदि में छपा करती थी। मेरा बचपन लखनऊ में बीता। रायबरेली में प्राथमिक पाठशाला में पढ़ा। इसके बाद आगरा, नागपुर, दिल्ली, कानपुर, रायपुर, बिलासपुर, भोपाल, दिल्ली की यात्राएं लगातार होती रही। एक पाँव दिल्ली में  तो दूसरा पाँव भोपाल में। जहां तक कविता लिखने की शुरूआत की बात है, तो कविता से पहला रिश्ता बचपन में ही जुड़ गया था, जब मैं काव्य गोष्ठी और कवि सम्मेलनों में सुनने जाता था। माँ किताबों को पढ़ने की शौक़ीन थी। माँ के लिए लाइब्रेरी से उपन्यास और अन्य विधाओं की किताबें लाया करता था, जिसे मैं, मेरे भाई बहन भी पढ़ते थे। मैंने पहली कविता तब लिखी थी, जब आगरा में हाई स्कूल का छात्र था। वे कवितायें पढ़ी हुई कविताओं का अनुकरण थी। फिर 70 के दशक में जब मैं नागपुर गया, तब ऎसे मित्रों के संसर्ग में आया, जिनसे मुझे ज्ञात हुआ कि कविता क्या होती है। मैंने पाया कविता दुखों से ऊपर की चीज है। वह संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। बेहतर कविता के लिए विचार, सरोकार स्पष्ट होने चाहिए। 77 के दशक में मैं आपातकाल के दौरान पत्रकारिता से जुड़ा। यदि 19 माह की इमरजेंसी नहीं लगी होती तो मैं संभवतः पत्रकारिता से उन्मुख नहीं होता। किसी शासकीय नौकरी में चला गया होता। उससे जीविकोपार्जन कर रहा होता। लेकिन लिखना नहीं छोड़ता। नागपुर में मित्रों विशेषकर विनायक कराडे की सोहबत, उनके साथ अनवरत विमर्श, जिरह के बाद मैंने लेखन का रास्ता चुना जो आज तक बदस्तूर जारी है। पत्रकारीय लेखन, मौलिक लेखन, इतिहास लेखन, अनुवाद, उपन्यास, कवितायें, यात्रा वृत्तांत, डाक्यूमेशन लिखने का सिलसिला जारी है। हिंदी के अनन्य सेवक सेठ गोविन्ददास के जीवन पर आधारित शोधपरक उपन्यास लिखा। "गोविन्द की गति गोविन्द" लिखा। इस बीच मेरी कविताओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अलबत्ता मैंने भी ब्राजील, रूस, स्वीडन, पोलेंड, इराक आदि देशों के रचनाकारों की कविताओं का अनुवाद किया। मुझे लगता है कविता ने मुझको चुना। मैंने साहित्य को चुना है। यह रिश्ता आजीवन निभेगा। बिना लिखे , पढ़े,  सोचे मैं नहीं रह सकता। इसके बिना अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकता। लेखन ही मेरा जीवन है।"
आप पत्रकारिता, कविता, अनुवाद, सम्पादन, इतिहास लेखन आदि से संलग्न हैं, इन सबके साथ न्याय कैसे कर पाते हैं? जवाब था " अगर आप किसी चीज से गहरे जुड़े हैं, तो न्याय अन्याय की बात नहीं उठती। अगर साहित्य जरूरत बन जाती है, तो उससे गहरे जुड़ जाते हैं। अभिव्यक्ति की छटपटाहट, उसकी तीव्रता होती है, जिसके कारण आप लिखते हैं। जो कविता में छूटता है, आप उसे अन्य विधा में कहते हैं। शब्दों, रंगों, शिल्प आदि में आप अपने को व्यक्त करते हैं।"
विश्व कविता और हिंदी कविता के स्तर में आप क्या अंतर महसूस करते हैं? डा. सक्सेना ने कहा " देशकाल, परिस्थितियों से जुड़ कर कविता महान होती है। स्थानीय हुए बगैर आप वैश्विक नहीं हो सकते। भारत, स्पेन, अफ्रीका, लेटिन अमरीका के सन्दर्भ अलग अलग होते हैं। बिलासपुर, रायपुर, आदि जगहों में लिखी जा रही कविता विश्व कविता का ही अंश है। भारतीय कविता कहीं न कहीं विश्व कविता से जुड़ती है। नेकी और बदी की लड़ाई में कविता हमेशा नेकी के साथ खड़ी रहती है। भारतीय कविता में संताप, आलाप, प्रतिरोध, जिरह, प्रेम, प्रार्थना भी है।"
साहित्य में प्रगतिशील और जनवादी लेखन की जगह के सवाल पर डा. सक्सेना का कहना था " अच्छा और सही लेखन हमेशा प्रगतिशील और जनवादी लेखन होता है। इसमें ठप्पा लगाने, इसे संगठन के साँचे में देखने की जरूरत नहीं है। जो मानवीय करूणा, संघर्ष के स्वर को जगह देता है वो प्रगतिशील लेखन होता है। हर युग में कवि अपने को उन शक्तियों के खिलाफ पाता है, जो अमानवीय और अराजक होती है। वो शक्तियां जो मनुष्य को मनुष्यता से युद्ध करने का षड्यंत्र रचती है।"
सोशल मीडिया में साहित्य की उपस्थिति पर इनका मंतव्य था, "सोशल मीडिया ने अपने लिए एक बड़ा स्पेस तलाशा है। जो अपने को व्यक्त करना चाहते हैं उसने उनको जगह दी है। यह एक सुलभ तरीका है। अब कागज़ की जरूरत, सम्पादक से संपर्क साधने की जरूरत, छपने का इंतजार करने की जरूरत नहीं रही। अब आप अपने को तुरंत व्यक्त कर सकते हैं। क्षणों में ही लाखों, करोड़ों लोगों तक पहुंच सकते हैं। सोशल मीडिया में अच्छी , बुरी दोनों चीजें आ रही हैं। सोशल मीडिया जितना शक्तिशाली, कारगर, प्रभावी है उतना उसमें कबाड़ भी आ रहा है। हालांकि इसकी बढती ताकत से इंकार भी नहीं किया जा सकता।"
आजादी की लड़ाई में आदिवासियों की शिरकत पर आपने पीएचडी की है, वर्तमान में बस्तर समेत अन्य क्षेत्र के आदिवासियों की क्या स्थिति आंकलित करते है? उन्होंने दुःख जताते हुए कहा "आजादी की लड़ाई में आदिवासियों के काम, योगदान को सही तरीके से रेखांकित नहीं किया गया है, चाहे वे आदिवासी शूरवीर बस्तर, झाबुआ या अन्य क्षेत्र के हों। बस्तर के आदिवासी नायक गुण्डाधूर को कितने लोग जानते हैं। चार आदिवासी नायक ऎसे हुए हैं, जो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से पहले बस्तर में शहीद हो गए थे। आदिवासी अंचल में एक लम्बी परम्परा रही है, जिसमें अनेक आदिवासी नायकों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया है। हम दुर्भाग्य से उनके बारे में नहीं जानते। जहां तक अभी बस्तर की स्थिति का सवाल है, तो बस्तर अभिशप्त है, वह  दो पाटों के बीच पिस रहा है। एक तरफ वे शासकीय राजकीय व्यवस्था में दमन, शोषण, अनसुनापन के शिकार हैं तो दूसरी ओर नक्सलियों की हिंसा से पीड़ित हैं। लेकिन उम्मीद करना चाहिए कि वह दिन आएगा जब व्यवस्था बस्तर की संवेदनाओं को बुझेगी। उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति की दिशा में कदम उठाये जाएंगे। हालांकि तात्कालिक तौर पर कोई रोशनी नज़र नहीं आ रही है।"
(भेंटवार्ता और चित्र दिनेश ठक्कर बापा द्वारा)

Saturday 3 November 2018

पत्रिका "दुनिया इन दिनों" में प्रकाशित ग़ज़ल "वुजूद"


प्रसिद्ध सामयिक पत्रिका "दुनिया इन दिनों" के नवम्बर अंक में मेरी ग़ज़ल "वुजूद" प्रकाशित हुई है। शुभचिंतक, मित्र पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत है।

साहित्य खुले दिमाग वालों के लिए है : शाकिर अली



वरिष्ठ कवि-समालोचक से विशेष साक्षात्कार
बिलासपुर, छत्तीसगढ़। "साहित्य खुले दिमाग वालों के लिए है। पहले भी रहा है और आगे भी रहेगा। लोग इसमें सांस्कृतिक रूप से भी अपना योगदान देते हैं। साहित्य में प्रतिक्रियावाद एक कोने में चला गया है। साहित्य में प्रतिक्रियावादियों के लिए कोई जगह नहीं है। वो हाशिए में चले जाते हैं। प्रगतिशील और जनवादी विचारों की मुख्य धारा में आना है तो शोषण के खिलाफ लिखना होगा। तभी वे साहित्य में प्रतिस्थापित होते हैं।" यह विचार बिलासपुर के वरिष्ठ कवि-समालोचक शाकिर अली  ने गुरूवार,1 नवम्बर को अपने निवास में न्यूज़ पोर्टल "एएम पीएम टाइम्स" को दिए गए विशेष साक्षात्कार के दौरान व्यक्त किये।
साहित्य सृजन यात्रा के सन्दर्भ में उन्होंने बताया कि "स्कूल के दिनों से ही साहित्य के प्रति मेरी रुचि थी। धर्मयुग, सारिका, दिनमान जैसी नामी पत्रिकाओं को पढ़ते  हुए रूचि जागृत हुई। इनमें छपने वाली कवितायें अच्छी लगती थी। दिनमान में प्रकाशित कविताओं का अनुवाद पढ़ना अच्छा लगता था। कॉलेज के दिनों कवितायें लिखना शुरू हुआ। कॉलेज की पत्रिका में कवितायें छपी।  हालांकि मैं विज्ञान में स्नातक था लेकिन राजेश्वर सक्सेना के माध्यम से मैंने साहित्य में बहुत अध्ययन किया। हिंदी साहित्य में एएम भी किया। फिर जब ज्ञानरंजन के सम्पादन में जबलपुर से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका "पहल" के मई, 1976 के अंक में मेरा आलेख "वर्ण से वर्ग तक की यात्रा का समाजशास्त्र" प्रकाशित हुआ तो उस पर काफी वाद विवाद हुआ। देश भर में उसकी चर्चा हुई। वर्ष 1977-78 में "पहल" में अमेरिकन दार्शनिक हरवर्ट मारक्यूज के विचारों का अनुवाद भी छपा। भोपाल से शानी जी के सम्पादन में निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका "साक्षात्कार" के दिसम्बर 1977 - फरवरी 1978 के अंक में पहली बार मेरी तीन कवितायें "उसका इतिहास", "काले पहाड़ और हरे पेड़", तथा "कपड़े का आदमी" छपी। इससे मेरे मन में आत्मविश्वास बढ़ा कि मैं भी कवितायें लिख सकता हूँ। फिर तो आलेख, समीक्षा, कवितायें लिखने का काम लगातार चलता रहा।"
 12 सितम्बर, 1951 को बिलासपुर में जन्मे शाकिर अली की विभिन्न रचनाएं देश भर की पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित होती रही है। पत्रिका आकंठ, सर्वनाम, साम्य, वागर्थ, कृति और, सम्प्रेषण, वर्तमान साहित्य, शीराजा, लेखन सूत्र, सारिका, में भी अलग अलग विधा की रचनाएं छपी। आकाशवाणी बिलासपुर, रायपुर से भी रचनाएं प्रसारित हुई। वर्ष 1981 में भाषा प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित लेख संग्रह "साहित्य और राजनीति" (सम्पादन - डा. कुंवरपाल सिंह) में इनका चर्चित लेख "वर्ण से वर्ग तक की यात्रा का समाजशास्त्र" भी शामिल किया गया था। यह बीस रचनाकारों के लेखों का संकलन था। वर्ष 2017 में अनन्य प्रकाशन, दिल्ली द्वारा  प्रकाशित 66 कवियों की कविताओं का संग्रह "दूसरी हिंदी" (सम्पादन-निर्मला गर्ग) में शाकिर अली की दो कवितायें "मीडिया और मुसलमान", "कठिन समय में मित्र -संसार" शामिल थी। इसी वर्ष माह जुलाई में इनका प्रथम काव्य संग्रह "बचा रह जायेगा बस्तर" और दूसरा काव्य संग्रह "नये जनतंत्र में" उद्भावना प्रकाशन, राजनगर, गाजियाबाद से प्रकाशित हुआ है।
छत्तीसगढ़ राज्य ग्रामीण बैंक से सेवानिवृत्त शाकिर अली ने अपने पहले काव्य संग्रह "बचा रह जायेगा बस्तर" के सृजन के सन्दर्भ में बताया कि "वे जब वर्ष 2004 से 2008 तक बस्तर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक में बतौर अंकेक्षक कार्यरत थे, तब वे बस्तर अंचल में गाँव-गाँव घूमते थे। बस्तर क्षेत्र को बहुत नजदीक से जाना समझा। वर्ष 2005 में जब वहां सलवा जुड़ूम अभियान शुरू हुआ तब लोग आतंक के साये में जी रहे थे। उसकी प्रतिच्छाया कविताओं में है। बस्तर पर पत्रिका "पहल" में छपी 25 कवितायें तथा पत्रिका "कृति और" में प्रकाशित 16 कविताएँ मेरे इस पहले काव्य संग्रह में शामिल हैं।"
 काव्य संग्रह "बचा रह जायेगा बस्तर" की भूमिका में श्री अली लिखते है कि, "बस्तर पर लिखना बहुत कठिन है, और उससे भी ज्यादा कठिन है, यहां के लोगों के दुखों पर लिखना। जिनका दुःख नदी जितना गहरा, धरती जितना फैला हुआ और पहाड़ जितना ऊँचा है। बस्तर के इंसान का दुःख अनंत है, क्योंकि यह पूरी धरती के इंसानों के अनंत दुःखों का ही एक हिस्सा है। बस्तर में जंगल के आदमी को, उसके जंगल को, पहाड़ को, नदी को हारते  देखना बेहद रुला देने वाला दृश्य है। बस्तर पर ये कवितायें लंबी कविता नहीं, यह लंबा पर्वत रूदन है, जंगल क्रंदन है, नदी की सिसकियाँ हैं। इनमें आक्रोश नहीं है, सिर्फ आदिवासियों में आक्रोश है, बाकी सब तटस्थ हैं या लूट में शामिल!"
शाकिर अली कविता "बस्तर के लोग" में लिखते हैं -"बस्तर के लोग/ काठ बन कर घरों के खिड़की, दरवाजे, पलंग बन कर रह गये/ बस्तर के लोग/ बस्तर आर्ट बन कर दुनिया भर के/ ड्राइंग रूम की शोभा बन कर रह गये/ बस्तर के लोग/ नष्ट हो गए, अपने साल वनों के द्वीप के समान ही/ नष्ट हो गये, उनके घोटुल, उनका मृत्यु संगीत/ और/ उनके काठ के स्मृति चिन्ह।"
कविता "बारूदी गंध" में वे लिखते हैं - "बस्तर को हजम करना/ कितना आसान है/ यहां के लोहे के पहाड़/ गहरी नदी इंद्रावती, शबरी/ यहां का कोरण्डम, टिन, यूरेनियम/ सब हजम कर लिये गये/ यहां चित्रकूट, तीरथगढ़ प्रपात/ बस्तर की हालत पर/ ढेरों आंसू बहाते हैं/ बारूदी गंध से घबरा कर हवा/ कैलाश गुफा और कुटुमसर की गुफाओं में ही/ थोड़ी देर पाती है, विश्राम!"
इस मार्मिक और चिंतनीय काव्य संग्रह में अपनी टिप्पणी में वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार सुधीर सक्सेना ने लिखा है-" ये कवितायें वही कवि लिख सकता है, जो बस्तर की वेदना और संवेदना से एकाकार है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि आज बस्तर में बस्तर नहीं है।बस्तर की धरती आज कच्ची, वीरान और श्रीहीन है। पहाड़ न तो चल सकते हैं और न ही बोल सकते हैं। उन्हें बोया भी नहीं जा सकता। धरती उदास है, नदियां बेआब और पेड़ पीछे की ओर दुर्गम में चले गये हैं। शाकिर की कवितायें इसी भयावह सच को व्यक्त करती हैं। उनकी कविताओं में बस्तर के उस विविधवर्णी सौंदर्य के अक्स हैं, जो बस्तर को बस्तर बनाता था। वे चीजें लुप्तप्रायः हैं, जिनके होने से बस्तर, बस्तर था, आत्मीय, चित्ताकर्षक और विलक्षण! संवेदनाहीन यांत्रिक सभ्यता के हाथों बस्तर आज एक रिश्ते हुए व्रण में तब्दील हो गया है, मगर सभ्यता का कोई मलाल नहीं है। प्रायश्चित तो दूर की बात है।"
इसी प्रकार की सटीक टिप्पणी नासिर अहमद सिकंदर ने भी शाकिर अली के दूसरे काव्य संग्रह "नये जनतंत्र में" लिखी है। वे लिखते हैं " शाकिर की राजनैतिक कवितायें भी सरलीकृत शिल्प की कवितायें नहीं हैं। उनकी कविताओं में वाम राजनीति के बिखरते स्वरूप पर वाजिब चिंता भी है। केदार, नागार्जुन, मुक्तिबोध की तरह वे इस स्वरूप को कविता में रचते हैं। मुक्तिबोध अपने काव्यात्मक मूल्यों में अंतःकरण का आयतन जिसे कहते थे तथा उनकी संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन की पद्धतियाँ क्या थीं, उसे देखना हो तो शाकिर की कविताओं में देखा जा सकता है।"
सार्थक शब्द और कविताओं के बारे में शाकिर अली हमेशा गंभीर और चिंतित रहते हैं। वे अपनी कविता "शताब्दियों का सच" में लिखते हैं -"कविता में आने से पहले/ शब्द ढलते हैं, कारखानों में/ टकसालों में, मानव समाज में/ पलते हैं, घरों में, स्कूलों में/ पाठ्य पुस्तकों में/ नानी की कहानियों में/ बच्चों की तुतलाहट में/ मचलते हैं, खेल के मैदान में/ टाकीजों में, फिल्मों में/ टीवी सीरियलों में/ बाजार में, दूकान में/ व्यापार में, शेयर बाजार में/ टहलते हैं, राजनीति में, धर्म में/ जनता के मर्म में/ समेट  कर लाते हैं/ सारा कुछ बुहार कर/ यथार्थ, सब जगह से।"
भेंटवार्ता के दौरान जब शाकिर अली से यह पूछा गया कि आपके दूसरे काव्य संग्रह में ज्यादातर कवितायें आपके साहित्यिक मित्रों पर ही क्यों केंद्रित है? इनका प्रत्युत्तर था "साहित्यिक मित्रों के माध्यम से ही मेरा बहुत सारा संस्कार हुआ। जब बिलासपुर के मिलन मंदिर में पूजा के दौरान जाता था तब बांग्ला संस्कृति से लगाव हुआ। बांग्ला भाषा भी सीखी। सुकांत भट्टाचार्य की कविताओं का हिंदी में अनुवाद भी किया। इसके अलावा मराठी कविताओं का भी अनुवाद किया। अनुवाद के प्रति मेरी गहरी रुचि रही।"
पत्रिका "पहल" के मई 1976 के अंक में आपके आलेख "वर्ण से वर्ग तक की यात्रा का समाजशास्त्र" में राष्ट्रीय बूर्जुआ के उद्धरण को लेकर देश भर में काफी विवाद हुआ था। असलियत क्या थी? इसके जवाब में सफाई देते हुए उन्होंने कहा कि, "वर्ग विभाजित समाज है हमारा। विश्व भी है। पूंजीवादी समाज में अमीर और गरीब दोनों होते हैं। अमीरों का संसाधनों पर कब्जा रहता है। अंग्रेज भी लुटेरे बन कर आये थे। जहां तक राष्ट्रीय बूर्जुआ की परिभाषा का सवाल है, तो पढ़े लिखे, साधन सम्पन्न जो लोग होते हैं, उन्हें राष्ट्रीय बूर्जुआ कहा जाता है। स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी जी और नेहरू जी को राष्ट्रीय बूर्जुआ लीडर माना जाता है। उन्होंने आम जनता को साम्राज्यवाद के खिलाफ गोलबंद किया था। ये समाज का नेतृत्व कर रहे थे। राष्ट्रीय बूर्जुआ एक सम्मानजनक शब्द है, जिसका नासमझ लोगों ने गलत अर्थ लिया। नासमझ लोगों ने इस शब्द को गाली सूचक माना और कहा कि इससे हमारे राष्ट्रीय नेताओं का अपमान हुआ है। जबकि यह आरोप गलत था। तब इसके बचाव में देशबन्धु के प्रधान सम्पादक मायाराम सुरजन के नेतृत्व में प्रबुद्ध लेखकों ने तात्कालीन मुख्यमंत्री श्याचरण शुक्ल से मुलाक़ात कर वास्तविक स्थिति से अवगत कराया था। उन्हें समझाया गया कि यह गाली गलौच का नहीँ बल्कि विश्लेषण का मामला है। राष्ट्रीय बूर्जुआ पारिभाषिक शब्दावली है, गाली नहीं।"
सनद रहे कि पत्रिका "धर्मयुग" के 11 सितम्बर 1977 के अंक में विश्वभावन देवलिया का संकलन लेख "छद्म प्रगतिशीलों की "पहल"-वानी" प्रकाशित हुआ था, जिसमें शाकिर अली के पहल वाले विवादास्पद लेख पर भी आलोचनात्मक टिप्पणी छपी थी। इसके अलावा पत्रिका "कादम्बिनी" (सम्पादक राजेन्द्र अवस्थी) के सितम्बर 1976 के अंक में भी  स्तम्भ "समय के हस्ताक्षर" में शीर्षक "सरकारी अनुदान का दुरूपयोग" के तहत आलोचनात्मक टिप्पणी प्रकाशित हुई थी। इसके बाद जम कर खेमेबाजी हुई थी। शाकिर अली के पहल वाले लेख के समर्थन में भोपाल, ग्वालियर, जबलपुर, कटनी, रतलाम, विदिशा, बिलासपुर, लखनऊ, वाराणसी, हैदराबाद, जोधपुर, दिल्ली, कलकता आदि जगहों के प्रगतिशील और प्रबुद्ध लेखकों, विचारकों, कलाकारों द्वारा समर्थन प्रस्ताव पारित किया गया था। दैनिक देशबन्धु, रायपुर के 24 सितम्बर 1976 के अंक में मायाराम सुरजन ने "मामला पहल का : दिमाग जहर का" शीर्षक से सम्पादकीय लिखा था। इसी प्रकार समर्थन में समांतर लेखक संघ के महामन्त्री ने पत्रिका "सारिका" (सम्पादक कमलेश्वर) के दिसम्बर 1976 के अंक में पाठकीय पृष्ठ में  "प्रगतिशील चिंतन और प्रतिगामी बौखलाहट" शीर्षक से टिप्पणी लिखी थी।
शाकिर अली विशुद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं के पक्षधर हैं। साहित्यिक और व्यावसायिक पत्रिकाओं में अंतर और उनके भविष्य के बारे में इनका जवाब था "व्यावसायिक पत्रिकाएं तो लगातार बन्द होते जा रही है। आज के दौर में व्यावसायिक पत्रिकाएं नहीं चल सकती। इनका ज़माना गया। इसे छापना कठिन है। जबकि साहित्यिक पत्रिकाएं चल रही हैं। हंस, कथादेश, पाखी, परिकथा, वसुधा, नया पथ, पहल, वागर्थ, पाठ, आदि साहित्यिक पत्रिकाएं बौद्धिक स्तर की हैं। इनमें स्त्री सहित सभी तरह के विमर्श छप रहे हैं। इनका भविष्य उज्ज्वल है।"
साहित्य में सोशल मीडिया की स्थिति के बारे में श्री अली ने अफ़सोस जाहिर करते हुये कहा "वहां कोई आलोचक या सम्पादक नहीं है। वहां कोई छलनी भी नहीं है। वहां अराजक लोकतंत्र कायम है। बड़ी मुश्किल से वहां कोई अच्छी रचना देखने को मिलती है। वहां अब विश्व स्तर की रचनाओं को अनुवाद के रूप में डाला जा रहा है। वहां तो ज्यादातर अख़बारी किस्म, रोजमर्रा और तात्कालिक घटनाओं की सतही कवितायें लिख दी जाती हैं, जिसका कोई भविष्य नहीं है। वहां कुछ ही अच्छी कवितायें आ रही है।"
(भेंटवार्ता और चित्र दिनेश ठक्कर बापा द्वारा)