Wednesday 31 October 2018

बाजारवाद की तरफ ढकेल दी गई हैं अब साहित्यिक पत्रिकाएं : रामकुमार



नामी कवि-कहानीकार से विशेष भेंटवार्ता
बिलासपुर, छत्तीसगढ़। "वर्तमान समय में साहित्यिक पत्रिकाओं को बाजारवाद की तरफ ढकेल दिया गया है। कुछ कालगति के कारण भी इनका स्तर गिरा है। हालांकि यह वक़्त भारतीय समाज का संक्रमणकाल है। इसकी अपनी जीवन पद्धति थी और उसके अपने जीवन मूल्य थे जो अब परिवर्तित किये जा रहे हैं। उसमें अपने होने को चिन्हित करने, रहने की जद्दोजहद, कशमकश है। अभी तक ऐसी कोई पत्रिका नहीं आ पाई है, जिसमें पूरे परिवार के लिए सब कुछ हो। साहित्यिक कही जाने वाली  पत्रिकाएं साहित्य की अभिरूचि के व्यक्तियों के लिए ही है। ऐसी कोई पत्रिका अभी नहीं है, जो पूरे समाज और हर तबके के लोगों को जोड़ सके।" यह चिंता नामी कवि-कहानीकार रामकुमार तिवारी ने मंगलवार, 30 अक्टूबर को न्यूज़ पोर्टल "एएम पीएम  टाइम्स" को दी गई विशेष भेंटवार्ता के दौरान व्यक्त की।
संजोई हुई स्मृतियों को ताज़ा करते हुए बिलासपुरवासी श्री तिवारी ने बताया कि, "जब कभी मैं अपने लेखकीय जीवन के बारे में सोचता हूँ तो मुझे आश्चर्य होता है कि इस क्षेत्र में मैं कैसे आ गया। मेरे आसपास, मेरे परिवार और न ही मेरी शिक्षा में साहित्य के लिए कोई जगह थी। नौकरीपेशा होने के कारण जब मैं स्थानांतरित होकर सरगुजा जिले रामानुजगंज कसबे में पहुंचा तो यहीं से लेखन की शुरूआत हुई। यह कस्बा प्यारा, सुंदर, नैसर्गिक और आत्मीयता से लबरेज़ था। दरअसल मुझे तो यहां विभागीय रूप से "काला पानी" सजा की तरह भेजा गया था। लेकिन कुछ ऐसा संयोग बना कि वहीं रहते हुए लेखन कार्य शुरू हुआ। वह एक बहुत बड़ी नाटकीय और रोचक घटना है, जिसे मैं कभी विस्तार से किसी लंबी कहानी या उपन्यास में लिखूंगा। खैर, वहां रहकर मैं अखबारों के रविवारी पृष्ठों को पलटते हुए लेखन की ओर आकृष्ट हुआ। लेखन को जाना, समझा। वहां धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी जैसी पत्रिकाएं आती थी। इसी बीच मासिक पत्रिका "कादम्बिनी " ने अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता (वर्ष 1990) आयोजित की। यह 35 वर्ष से कम उम्र के कहानीकारों के लिए थी। मेरे ज़ेहन में एक कहानी थी। रात में उसे लिखा और सुबह कादम्बिनी को पोस्ट कर दिया। कहानी का शीर्षक था "सुकून"। इसे सर्वश्रेष्ठ कहानी का पुरस्कार मिला। यह मेरे जीवन की पहली रचना थी, जो प्रकाशित हुई और पुरस्कृत भी। इसके बाद मुझे बहुत सारे पत्र मिले, जो मैंने सम्हाल कर रखे हैं। वास्तव में मैं तो कहानीकार बनना ही नहीं चाहता था। मैं तो कविताओं की ओर आकृष्ट हुआ था। इसलिए रजिस्टर में उसे लिखता रहता था। जो एक तरह से मेरे लिए "वागले की दुनिया" जैसी थी। बाद में उन कविताओं का संग्रह प्रकाशित भी हुआ जिसका नाम था "जाने से पहले मैं जाऊँगा"। मेरी पहली पुस्तक बतौर यह संकलन वर्ष 1989 में समीकरण प्रकाशन, हरपालपुर, छतरपुर (म.प्र.) से प्रकाशित हुआ था। इसमें संवेदनाओं का खरापन और उसका छायांकन है, जो आज भी मुझे गहरी अनुभूति देता है। फिर कुछ समय बाद मेरे लेखन का विस्तार हुआ। जब भोपाल गया, तो वहां के साहित्यिक वातावरण से परिचित हुआ। राजेश जोशी, नवीन सागर जैसे साहित्यकारों से परिचय हुआ। नवीन सागर से तो साहित्यिक रिश्ता गहरा हो गया। कादम्बिनी वाली मेरी कहानी से वे प्रभावित थे। चार पांच साल बाद जब उनसे मिला तो नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए वे पूछे "कहानी लिखना क्यों छोड़ दिए हो?" मैंने जवाब दिया "नहीं छोड़ी है"। फिर भी उन्होंने चेतावनी भरे लहज़े में कहा "अगली बार आना तो कहानियां लिख कर आना, वरना मत आना।" उनका दबाव था। कुछ कहानियां मेरे जेहन में थी, जिसे लिखता रहा। पत्रिका "पहल" में प्रकाशित कहानी क़ुतुब एक्सप्रेस को वर्ष 2000 का क्रियेटिव फिक्शन के लिए महत्वपूर्ण कथा पुरकार भी मिला। इस तरह अप्रत्याशित रूप से कहानी कहानी की लेखन यात्रा आज भी जारी है। कम लिखता हूँ। लेकिन वर्ष में एक दो कहानी जरूर लिखता हूँ।"
रामकुमार तिवारी से जब यह पूछा गया कि आप कविता, कहानी में शिल्प को कितना महत्व देते हैं? तो उन्होंने कहा "शिल्प का महत्व तो होता है। जैसे शरीर पांच तत्वों से बना होता है वैसे ही साहित्य सृजन के लिए भी विविध तत्व आवश्यक होते हैं। उसमें शिल्प के अलावा भाषा, कथ्य सभी बराबर रूप से महत्वपूर्ण होते हैं। हालांकि कभी कभी विमर्शों के तहत रचनाओं का कम ज्यादा आंकलन किया जाता है, जो अनावश्यक है। मेरा मानना है कि साहित्य में नयापन हो, उसमें अपने समय का पृष्ठ तनाव हो, उस समय के अभाव का प्रकाश बोध हो, मानवीयकरण हो। रचनाओं में मात्रा ज्ञान के साथ सब चीजें जरूरी है, वरना  वह असन्तुलित हो जाती है।"
धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान, सारिका जैसी लोकप्रिय पत्रिकाओं के बंद हो जाने बाद रिक्त हुए साहित्यिक स्थान को क्या वर्तमान की पत्रिकाएं पूर्ण कर पा रही हैं? इसके उत्तर में श्री तिवारी ने दुःख प्रकट करते हुए कहा "जो रिश्ता समाज के साथ था, वो टूट गया। जो कभी धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि पत्रिकाएं रिक्तता को भरा करती थी। निहायत घरेलू परिवार, शिक्षारत व्यक्ति, या कहें हर उम्र के लोगों के लिए ये सरणी बनी हुई थी। विकासशील देश में होने वाले संक्रमण का असर हमारे यहां भी हुआ है। इस संक्रमण काल से हमारा समाज भी गुजर रहा है। पत्रिका नवनीत, कादम्बिनी निकल तो रही है, परंतु उसे पढ़ने वाले वैसे नहीं रहे। मुझे लगता है कि एक दो दशक तक ये दौर चलेगा। इसके बाद फिर से लोग छपे हुए अक्षर की ओर लौटेंगे।"
सोशल मीडिया का यह दौर साहित्य जगत के लिए कितना उपयोगी है? उनका जवाब उम्मीद भरा था - "सोशल मीडिया ने एक तरह से सकारात्मक स्पेस दिया है। जिनके लिए मीडिया में स्पेस नहीं था, वे अब यहां अपने रचे हुए को रख पा रहे हैं, दिखा पा रहे हैं। यह सब लोकतांत्रिक ढंग से अच्छा है, लेकिन रही बात इसके परिष्कार की, तो यह कहा जा सकता है कि इसका दुरूपयोग भी हो रहा है। इसके ज़रिये आत्मप्रशंसा भी हो रही है। यह माध्यम आत्म मुग्धता का भी शिकार हो रहा है। बहुत सारा अनर्गल है। यह लोगों का समय खा रहा है। इसकी लत भी लग रही है। फिर भी उम्मीद है कि उससे लोग धीरे धीरे उबरेंगे। आगे चल कर लोग उसका सकारात्मक उपयोग करना जानेंगे, करेंगे। मुझे पूरा भरोसा है कि आने वाले समय का यह सकारात्मक साधन होगा।"
1 फरवरी 1961 को उत्तरप्रदेश के ग्राम तेइया, महोबा में जन्मे रामकुमार तिवारी ने छतरपुर (म.प्र.) से सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया था। इनका दूसरा काव्य संग्रह "कोई मेरी फोटो ले रहा है" वर्ष 2008 में सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर से प्रकाशित हुआ था। साक्षात्कार, जनसत्ता, पहल, वागर्थ, समकालीन भारतीय साहित्य, कृति ओर, वसुधा, उत्तर प्रदेश, आजकल, वर्तमान साहित्य, उद्भावना, अक्षर पर्व, बीज की आवाज़ आदि पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं का यह उम्दा संकलन है। वर्ष 1991 में आकाशवाणी रिक्रिएशन क्लब, भोपाल द्वारा प्रकाशित काव्य संग्रह "बीज की आवाज़" में इनकी भी कवितायें शामिल की गई थी। यह 1980 के बाद आये दस कवियों के चयन की पुस्तिका थी।  चयन और भूमिका राजेश जोशी की थी। वर्ष 2000 में कथा, नई दिल्ली द्वारा "कथा- प्राइज स्टोरीज वॉल्यूम 10" प्रकाशित किया गया था। इसमें इनकी पुरस्कृत कहानी क़ुतुब एक्सप्रेस का अंग्रेजी अनुवाद शामिल था, जो सारा राय द्वारा अनुदित था। वर्ष 2013 में कहानी संग्रह "क़ुतुब एक्सप्रेस" सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर से प्रकाशित हुआ था। वर्ष 2018 में केलिबर पब्लिकेशन, पटियाला, पंजाब द्वारा  कविताओं का संग्रह "आसमान को सूरज की याद नहीं" का पंजाबी में अनुवाद (जगदीप सिद्धू द्वारा अनुदित) प्रकाशित हुआ था। रामकुमार तिवारी का नया काव्य संग्रह "धरती पर जीवन सोया था" शीघ्र छप कर आने वाला है। उन्होंने अथिति सम्पादक बतौर अपनी पहचान भी बनाई है। नवम्बर,  2007 में मासिक पत्रिका "कथादेश" के नवीन सागर विशेषांक के वे अथिति सम्पादक थे।
रामकुमार तिवारी अपने साहित्य सृजन को लेकर बेहद गंभीर रहते हैं। उन्होंने अपने पहले काव्य संग्रह में "मेरी बात" के तहत लिखा था कि "रचनाक्रम के प्रयास में मेरा उद्देश्य रहा है कि कविता को सतहीकरण से बचाते हुए उसका सहज सरल स्वरूप ही सामने आये। कविता और पाठक के बीच भाषा की खाई न रह पाये। पाठक कविता को मुझसे ज्यादा प्रत्यक्ष होकर अनुभूत कर सके।" इनके दूसरे काव्य संग्रह "कोई मेरी फोटो ले रहा है" की भूमिका में विष्णु खरे ने भी लिखा था "मानवीय उपस्थिति के बिना आज कविता लिखना असम्भव सा है। लेकिन राम कुमार तिवारी के काव्य में एक और बात जो चौकाती है, वह उसमें प्रकृति की अपेक्षाकृत प्रचुर उपस्थिति है। सूर्य, चंद्र, धरती, आकाश, तारे, पहाड़, नदी, जंगल, पेड़, पक्षी, घाटी, रेत, मरुस्थल आदि से कवि ऐसा सृष्टि-चित्र रचता है जो अपरिचित प्रकृति चित्रण नहीं है, बल्कि कवि के "स्व" एवं "प्रकृति" के "अन्य" के बीच कभी भावनात्मक तो कभी चिंतनशील आवाजाही है।"
इस आवाजाही के दरम्यान रामकुमार तिवारी अपने पहले काव्य संग्रह "जाने से पहले मैं जाऊंगा" में इसी शीर्षक की कविता में अपनी जिज्ञासा और इच्छा को अत्यंत मार्मिक तरीके से लिखते हैं -"जाने से पहले मैं जाऊँगा/ कोयल के पास/ यह जानने कि तुमने/ कौए से अलग पहचान/ कैसे बनाई?/ जाने से पहले मैं जाऊँगा/ झरने के पास/ यह जानने कि तुम/ नीचे गिर कर भी कैसे पा लेते हो/ नव-रूप, नव-गीत, नव-गति?/ कैसे हो जाती/ तुम्हारी ऊर्जा गुणित/ जाने से पहले मैं जाऊँगा/ आले के पास/ यह जानने कि तुम कैसे/ दीये की सारी कालिख स्वयं लेकर/ सारा प्रकाश कमरे को दे देते हो/ जाने से पहले मैं जाऊँगा/ कछुए के पास/ यह जानने कि तुम कैसे?/ दौड़ में खरगोश से/ जीत गए थे/ जाने से पहले मैं जाऊँगा/ खरगोश के पास/ यह जानने कि तुम कैसे/ दौड़ में कछुए से/ हार गए थे?/ जाने से पहले मैं जाऊँगा/ ऊँट के पास/ यह जानने कि तुमको/ रेगिस्तान का जहाज क्यों कहते?/ जाने से पहले मैं जाऊँगा/ नेल्सन मंडेला के पास/ यह जानने कि बंद मुट्ठी में क्या है?/ जाने पहले मैं जाऊँगा/ इस दुनिया से कूच करते/ किसी आदमी के पास/ यह जानने कि तुम/ इतनी लम्बी यात्रा पर जा रहे हो/ अपने साथ क्या-क्या ले जा रहे हो/ जाने से पहले मैं जाऊँगा/ अपने पास/ यह जानने कि/ मैं यहां क्यों आया हूँ?"
(भेंटवार्ता और चित्र दिनेश ठक्कर बापा द्वारा)

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