Saturday 3 November 2018

साहित्य खुले दिमाग वालों के लिए है : शाकिर अली



वरिष्ठ कवि-समालोचक से विशेष साक्षात्कार
बिलासपुर, छत्तीसगढ़। "साहित्य खुले दिमाग वालों के लिए है। पहले भी रहा है और आगे भी रहेगा। लोग इसमें सांस्कृतिक रूप से भी अपना योगदान देते हैं। साहित्य में प्रतिक्रियावाद एक कोने में चला गया है। साहित्य में प्रतिक्रियावादियों के लिए कोई जगह नहीं है। वो हाशिए में चले जाते हैं। प्रगतिशील और जनवादी विचारों की मुख्य धारा में आना है तो शोषण के खिलाफ लिखना होगा। तभी वे साहित्य में प्रतिस्थापित होते हैं।" यह विचार बिलासपुर के वरिष्ठ कवि-समालोचक शाकिर अली  ने गुरूवार,1 नवम्बर को अपने निवास में न्यूज़ पोर्टल "एएम पीएम टाइम्स" को दिए गए विशेष साक्षात्कार के दौरान व्यक्त किये।
साहित्य सृजन यात्रा के सन्दर्भ में उन्होंने बताया कि "स्कूल के दिनों से ही साहित्य के प्रति मेरी रुचि थी। धर्मयुग, सारिका, दिनमान जैसी नामी पत्रिकाओं को पढ़ते  हुए रूचि जागृत हुई। इनमें छपने वाली कवितायें अच्छी लगती थी। दिनमान में प्रकाशित कविताओं का अनुवाद पढ़ना अच्छा लगता था। कॉलेज के दिनों कवितायें लिखना शुरू हुआ। कॉलेज की पत्रिका में कवितायें छपी।  हालांकि मैं विज्ञान में स्नातक था लेकिन राजेश्वर सक्सेना के माध्यम से मैंने साहित्य में बहुत अध्ययन किया। हिंदी साहित्य में एएम भी किया। फिर जब ज्ञानरंजन के सम्पादन में जबलपुर से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका "पहल" के मई, 1976 के अंक में मेरा आलेख "वर्ण से वर्ग तक की यात्रा का समाजशास्त्र" प्रकाशित हुआ तो उस पर काफी वाद विवाद हुआ। देश भर में उसकी चर्चा हुई। वर्ष 1977-78 में "पहल" में अमेरिकन दार्शनिक हरवर्ट मारक्यूज के विचारों का अनुवाद भी छपा। भोपाल से शानी जी के सम्पादन में निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका "साक्षात्कार" के दिसम्बर 1977 - फरवरी 1978 के अंक में पहली बार मेरी तीन कवितायें "उसका इतिहास", "काले पहाड़ और हरे पेड़", तथा "कपड़े का आदमी" छपी। इससे मेरे मन में आत्मविश्वास बढ़ा कि मैं भी कवितायें लिख सकता हूँ। फिर तो आलेख, समीक्षा, कवितायें लिखने का काम लगातार चलता रहा।"
 12 सितम्बर, 1951 को बिलासपुर में जन्मे शाकिर अली की विभिन्न रचनाएं देश भर की पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित होती रही है। पत्रिका आकंठ, सर्वनाम, साम्य, वागर्थ, कृति और, सम्प्रेषण, वर्तमान साहित्य, शीराजा, लेखन सूत्र, सारिका, में भी अलग अलग विधा की रचनाएं छपी। आकाशवाणी बिलासपुर, रायपुर से भी रचनाएं प्रसारित हुई। वर्ष 1981 में भाषा प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित लेख संग्रह "साहित्य और राजनीति" (सम्पादन - डा. कुंवरपाल सिंह) में इनका चर्चित लेख "वर्ण से वर्ग तक की यात्रा का समाजशास्त्र" भी शामिल किया गया था। यह बीस रचनाकारों के लेखों का संकलन था। वर्ष 2017 में अनन्य प्रकाशन, दिल्ली द्वारा  प्रकाशित 66 कवियों की कविताओं का संग्रह "दूसरी हिंदी" (सम्पादन-निर्मला गर्ग) में शाकिर अली की दो कवितायें "मीडिया और मुसलमान", "कठिन समय में मित्र -संसार" शामिल थी। इसी वर्ष माह जुलाई में इनका प्रथम काव्य संग्रह "बचा रह जायेगा बस्तर" और दूसरा काव्य संग्रह "नये जनतंत्र में" उद्भावना प्रकाशन, राजनगर, गाजियाबाद से प्रकाशित हुआ है।
छत्तीसगढ़ राज्य ग्रामीण बैंक से सेवानिवृत्त शाकिर अली ने अपने पहले काव्य संग्रह "बचा रह जायेगा बस्तर" के सृजन के सन्दर्भ में बताया कि "वे जब वर्ष 2004 से 2008 तक बस्तर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक में बतौर अंकेक्षक कार्यरत थे, तब वे बस्तर अंचल में गाँव-गाँव घूमते थे। बस्तर क्षेत्र को बहुत नजदीक से जाना समझा। वर्ष 2005 में जब वहां सलवा जुड़ूम अभियान शुरू हुआ तब लोग आतंक के साये में जी रहे थे। उसकी प्रतिच्छाया कविताओं में है। बस्तर पर पत्रिका "पहल" में छपी 25 कवितायें तथा पत्रिका "कृति और" में प्रकाशित 16 कविताएँ मेरे इस पहले काव्य संग्रह में शामिल हैं।"
 काव्य संग्रह "बचा रह जायेगा बस्तर" की भूमिका में श्री अली लिखते है कि, "बस्तर पर लिखना बहुत कठिन है, और उससे भी ज्यादा कठिन है, यहां के लोगों के दुखों पर लिखना। जिनका दुःख नदी जितना गहरा, धरती जितना फैला हुआ और पहाड़ जितना ऊँचा है। बस्तर के इंसान का दुःख अनंत है, क्योंकि यह पूरी धरती के इंसानों के अनंत दुःखों का ही एक हिस्सा है। बस्तर में जंगल के आदमी को, उसके जंगल को, पहाड़ को, नदी को हारते  देखना बेहद रुला देने वाला दृश्य है। बस्तर पर ये कवितायें लंबी कविता नहीं, यह लंबा पर्वत रूदन है, जंगल क्रंदन है, नदी की सिसकियाँ हैं। इनमें आक्रोश नहीं है, सिर्फ आदिवासियों में आक्रोश है, बाकी सब तटस्थ हैं या लूट में शामिल!"
शाकिर अली कविता "बस्तर के लोग" में लिखते हैं -"बस्तर के लोग/ काठ बन कर घरों के खिड़की, दरवाजे, पलंग बन कर रह गये/ बस्तर के लोग/ बस्तर आर्ट बन कर दुनिया भर के/ ड्राइंग रूम की शोभा बन कर रह गये/ बस्तर के लोग/ नष्ट हो गए, अपने साल वनों के द्वीप के समान ही/ नष्ट हो गये, उनके घोटुल, उनका मृत्यु संगीत/ और/ उनके काठ के स्मृति चिन्ह।"
कविता "बारूदी गंध" में वे लिखते हैं - "बस्तर को हजम करना/ कितना आसान है/ यहां के लोहे के पहाड़/ गहरी नदी इंद्रावती, शबरी/ यहां का कोरण्डम, टिन, यूरेनियम/ सब हजम कर लिये गये/ यहां चित्रकूट, तीरथगढ़ प्रपात/ बस्तर की हालत पर/ ढेरों आंसू बहाते हैं/ बारूदी गंध से घबरा कर हवा/ कैलाश गुफा और कुटुमसर की गुफाओं में ही/ थोड़ी देर पाती है, विश्राम!"
इस मार्मिक और चिंतनीय काव्य संग्रह में अपनी टिप्पणी में वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार सुधीर सक्सेना ने लिखा है-" ये कवितायें वही कवि लिख सकता है, जो बस्तर की वेदना और संवेदना से एकाकार है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि आज बस्तर में बस्तर नहीं है।बस्तर की धरती आज कच्ची, वीरान और श्रीहीन है। पहाड़ न तो चल सकते हैं और न ही बोल सकते हैं। उन्हें बोया भी नहीं जा सकता। धरती उदास है, नदियां बेआब और पेड़ पीछे की ओर दुर्गम में चले गये हैं। शाकिर की कवितायें इसी भयावह सच को व्यक्त करती हैं। उनकी कविताओं में बस्तर के उस विविधवर्णी सौंदर्य के अक्स हैं, जो बस्तर को बस्तर बनाता था। वे चीजें लुप्तप्रायः हैं, जिनके होने से बस्तर, बस्तर था, आत्मीय, चित्ताकर्षक और विलक्षण! संवेदनाहीन यांत्रिक सभ्यता के हाथों बस्तर आज एक रिश्ते हुए व्रण में तब्दील हो गया है, मगर सभ्यता का कोई मलाल नहीं है। प्रायश्चित तो दूर की बात है।"
इसी प्रकार की सटीक टिप्पणी नासिर अहमद सिकंदर ने भी शाकिर अली के दूसरे काव्य संग्रह "नये जनतंत्र में" लिखी है। वे लिखते हैं " शाकिर की राजनैतिक कवितायें भी सरलीकृत शिल्प की कवितायें नहीं हैं। उनकी कविताओं में वाम राजनीति के बिखरते स्वरूप पर वाजिब चिंता भी है। केदार, नागार्जुन, मुक्तिबोध की तरह वे इस स्वरूप को कविता में रचते हैं। मुक्तिबोध अपने काव्यात्मक मूल्यों में अंतःकरण का आयतन जिसे कहते थे तथा उनकी संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन की पद्धतियाँ क्या थीं, उसे देखना हो तो शाकिर की कविताओं में देखा जा सकता है।"
सार्थक शब्द और कविताओं के बारे में शाकिर अली हमेशा गंभीर और चिंतित रहते हैं। वे अपनी कविता "शताब्दियों का सच" में लिखते हैं -"कविता में आने से पहले/ शब्द ढलते हैं, कारखानों में/ टकसालों में, मानव समाज में/ पलते हैं, घरों में, स्कूलों में/ पाठ्य पुस्तकों में/ नानी की कहानियों में/ बच्चों की तुतलाहट में/ मचलते हैं, खेल के मैदान में/ टाकीजों में, फिल्मों में/ टीवी सीरियलों में/ बाजार में, दूकान में/ व्यापार में, शेयर बाजार में/ टहलते हैं, राजनीति में, धर्म में/ जनता के मर्म में/ समेट  कर लाते हैं/ सारा कुछ बुहार कर/ यथार्थ, सब जगह से।"
भेंटवार्ता के दौरान जब शाकिर अली से यह पूछा गया कि आपके दूसरे काव्य संग्रह में ज्यादातर कवितायें आपके साहित्यिक मित्रों पर ही क्यों केंद्रित है? इनका प्रत्युत्तर था "साहित्यिक मित्रों के माध्यम से ही मेरा बहुत सारा संस्कार हुआ। जब बिलासपुर के मिलन मंदिर में पूजा के दौरान जाता था तब बांग्ला संस्कृति से लगाव हुआ। बांग्ला भाषा भी सीखी। सुकांत भट्टाचार्य की कविताओं का हिंदी में अनुवाद भी किया। इसके अलावा मराठी कविताओं का भी अनुवाद किया। अनुवाद के प्रति मेरी गहरी रुचि रही।"
पत्रिका "पहल" के मई 1976 के अंक में आपके आलेख "वर्ण से वर्ग तक की यात्रा का समाजशास्त्र" में राष्ट्रीय बूर्जुआ के उद्धरण को लेकर देश भर में काफी विवाद हुआ था। असलियत क्या थी? इसके जवाब में सफाई देते हुए उन्होंने कहा कि, "वर्ग विभाजित समाज है हमारा। विश्व भी है। पूंजीवादी समाज में अमीर और गरीब दोनों होते हैं। अमीरों का संसाधनों पर कब्जा रहता है। अंग्रेज भी लुटेरे बन कर आये थे। जहां तक राष्ट्रीय बूर्जुआ की परिभाषा का सवाल है, तो पढ़े लिखे, साधन सम्पन्न जो लोग होते हैं, उन्हें राष्ट्रीय बूर्जुआ कहा जाता है। स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी जी और नेहरू जी को राष्ट्रीय बूर्जुआ लीडर माना जाता है। उन्होंने आम जनता को साम्राज्यवाद के खिलाफ गोलबंद किया था। ये समाज का नेतृत्व कर रहे थे। राष्ट्रीय बूर्जुआ एक सम्मानजनक शब्द है, जिसका नासमझ लोगों ने गलत अर्थ लिया। नासमझ लोगों ने इस शब्द को गाली सूचक माना और कहा कि इससे हमारे राष्ट्रीय नेताओं का अपमान हुआ है। जबकि यह आरोप गलत था। तब इसके बचाव में देशबन्धु के प्रधान सम्पादक मायाराम सुरजन के नेतृत्व में प्रबुद्ध लेखकों ने तात्कालीन मुख्यमंत्री श्याचरण शुक्ल से मुलाक़ात कर वास्तविक स्थिति से अवगत कराया था। उन्हें समझाया गया कि यह गाली गलौच का नहीँ बल्कि विश्लेषण का मामला है। राष्ट्रीय बूर्जुआ पारिभाषिक शब्दावली है, गाली नहीं।"
सनद रहे कि पत्रिका "धर्मयुग" के 11 सितम्बर 1977 के अंक में विश्वभावन देवलिया का संकलन लेख "छद्म प्रगतिशीलों की "पहल"-वानी" प्रकाशित हुआ था, जिसमें शाकिर अली के पहल वाले विवादास्पद लेख पर भी आलोचनात्मक टिप्पणी छपी थी। इसके अलावा पत्रिका "कादम्बिनी" (सम्पादक राजेन्द्र अवस्थी) के सितम्बर 1976 के अंक में भी  स्तम्भ "समय के हस्ताक्षर" में शीर्षक "सरकारी अनुदान का दुरूपयोग" के तहत आलोचनात्मक टिप्पणी प्रकाशित हुई थी। इसके बाद जम कर खेमेबाजी हुई थी। शाकिर अली के पहल वाले लेख के समर्थन में भोपाल, ग्वालियर, जबलपुर, कटनी, रतलाम, विदिशा, बिलासपुर, लखनऊ, वाराणसी, हैदराबाद, जोधपुर, दिल्ली, कलकता आदि जगहों के प्रगतिशील और प्रबुद्ध लेखकों, विचारकों, कलाकारों द्वारा समर्थन प्रस्ताव पारित किया गया था। दैनिक देशबन्धु, रायपुर के 24 सितम्बर 1976 के अंक में मायाराम सुरजन ने "मामला पहल का : दिमाग जहर का" शीर्षक से सम्पादकीय लिखा था। इसी प्रकार समर्थन में समांतर लेखक संघ के महामन्त्री ने पत्रिका "सारिका" (सम्पादक कमलेश्वर) के दिसम्बर 1976 के अंक में पाठकीय पृष्ठ में  "प्रगतिशील चिंतन और प्रतिगामी बौखलाहट" शीर्षक से टिप्पणी लिखी थी।
शाकिर अली विशुद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं के पक्षधर हैं। साहित्यिक और व्यावसायिक पत्रिकाओं में अंतर और उनके भविष्य के बारे में इनका जवाब था "व्यावसायिक पत्रिकाएं तो लगातार बन्द होते जा रही है। आज के दौर में व्यावसायिक पत्रिकाएं नहीं चल सकती। इनका ज़माना गया। इसे छापना कठिन है। जबकि साहित्यिक पत्रिकाएं चल रही हैं। हंस, कथादेश, पाखी, परिकथा, वसुधा, नया पथ, पहल, वागर्थ, पाठ, आदि साहित्यिक पत्रिकाएं बौद्धिक स्तर की हैं। इनमें स्त्री सहित सभी तरह के विमर्श छप रहे हैं। इनका भविष्य उज्ज्वल है।"
साहित्य में सोशल मीडिया की स्थिति के बारे में श्री अली ने अफ़सोस जाहिर करते हुये कहा "वहां कोई आलोचक या सम्पादक नहीं है। वहां कोई छलनी भी नहीं है। वहां अराजक लोकतंत्र कायम है। बड़ी मुश्किल से वहां कोई अच्छी रचना देखने को मिलती है। वहां अब विश्व स्तर की रचनाओं को अनुवाद के रूप में डाला जा रहा है। वहां तो ज्यादातर अख़बारी किस्म, रोजमर्रा और तात्कालिक घटनाओं की सतही कवितायें लिख दी जाती हैं, जिसका कोई भविष्य नहीं है। वहां कुछ ही अच्छी कवितायें आ रही है।"
(भेंटवार्ता और चित्र दिनेश ठक्कर बापा द्वारा)

No comments:

Post a Comment