Monday 29 October 2018

सोशल मीडिया आने के बाद साहित्यकारों को बहुत स्पेस मिला : द्वारिका



बिलासपुर, छत्तीसगढ़। "सोशल मीडिया आने के बाद ही साहित्यकारों को बहुत स्पेस मिला है। उसके पहले तो वे संपादकों की दृष्टि-कुदृष्टि पर निर्भर थे। अब ऐसी कोई परेशानी नहीं है। आप अपनी बात लिखिए। फेसबुक या सोशल, इलेक्ट्रानिक मीडिया में डालिए। पाठक खुद तय करके बताते हैं कि ये उनको पसंद है या नहीं।" यह विचार देश के प्रसिद्ध प्रबंधन गुरु और साहित्यकार द्वारिका प्रसाद अग्रवाल ने रविवार, 28 अक्टूबर को न्यूज़ पोर्टल "एएम पीएम टाइम्स" से विशेष भेंटवार्ता के दौरान व्यक्त किये।
18 दिसम्बर, 1947 को जन्में श्री द्वारिका प्रसाद अग्रवाल हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर हैं। वे जूनियर चेम्बर इंटरनेशनल के सर्टिफाइड मेंबर ट्रेनर हैं। वे मानव-व्यवहार प्रबंधन और व्यक्तित्व विकास के अंतर्राष्ट्रीय प्रशिक्षक रहे हैं। अब साहित्य सृजन के क्षेत्र में भी वे सशक्त हस्ताक्षर माने जाते हैं। इन्होंने आत्मकथा लेखन की नई शैली विकसित की है। इनकी आत्मकथा के तीन खंड - "कहाँ शुरू कहाँ ख़त्म" (डायमंड पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली, वर्ष 2014), "पल पल ये पल" (बोधि प्रकाशन, जयपुर, वर्ष 2015, पुनर्मुद्रण वर्ष 2017) और "दुनिया रंग बिरंगी" (बोधि प्रकाशन, जयपुर, वर्ष 2016) प्रकाशित हो चुके हैं। ये सोशल मीडिया में भी बेहद चर्चित रहे हैं। इसके अलावा इसी वर्ष बोधि प्रकाशन से प्रकाशित कहानी संग्रह "याद किया दिल ने" और रश्मि प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित यात्रा वृत्तांत "मुसाफ़िर जाएगा कहाँ" भी पाठकों द्वारा प्रशंसित है। उपन्यास "मद्धम मद्धम" शीघ्र ही छप कर आने वाला है।
श्री अग्रवाल ने अपनी भेंटवार्ता के दौरान तमाम सवालों के जवाब बेबाकी से दिए। प्रबंधन गुरु से साहित्यकार बनने की वज़ह बताते हुए उन्होंने कहा कि अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के दो साधन मुख्य हैं। हम बोलें या लिखेँ। मैंने वर्ष 1992 से प्रशिक्षण कार्य शुरू किया जो वर्ष 2002 तक चला। वर्ष 2003 में जब मुझे मुँह का कैंसर हुआ तो बोलने में असुविधा होने लगी तो मैं लेखन के क्षेत्र में आ गया।"
जब उनसे यह पूछा गया कि जो लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं, वे आम तौर पर कई चीजों को छुपा लेते हैं। क्या आपने भी ऐसा ही किया है? तो उन्होंने सवाल मिश्रित जवाब दिया -"सब कुछ कैसे बताया जा सकता है?" प्रतिप्रश्न था - आपने क्या बताने की कोशिश की है? उनका दो टूक उत्तर था -"मैंने वो बताने की कोशिश की है, पाठकों के काम आ सके।" गौरतलब है कि श्री अग्रवाल ने अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में इस मुद्दे पर सफ़ाई देते हुए लिखा भी है कि "आत्मकथा लिखना नंगे हाथों से 440 वोल्ट का करंट छूने जैसा खतरनाक काम है। कथा सबकी होती है, लेकिन जब उसे सार्वजनिक रूप दिया जाता है तो वह चुनौतीपूर्ण हो जाती है। क्या बताएं, क्या न बताएं? बताएं तो किस तरह, छुपाएं तो कैसे? अतीत की घटनाओं का शब्द चित्रण, अपनी कमजोरियों और विशेषताओं का तटस्थ विवेचन, घटनाओं से जुड़े लोगों की निजता और भावनाओं का सम्मान ऐसा कार्य है, जैसे युद्ध क्षेत्र में योद्धा अपने प्राण देने को तैयार हो, लेकिन उसे सामने वाले के प्राण लेने में संकोच हो रहा हो।" वे यह भी लिखते हैं कि "मुझे क्या जरूरत है कि मैं निर्वस्त्र होकर बीच बाजार में खड़ा हो जाऊं, मात्र अहंकार की तुष्टि या आत्म प्रचार के लिए।" "बताना बहुत कुछ है, लेकिन सम्प्रेषण की बाधाएं हैं। शब्दों की विवशता भी है। मेरे सामने मुश्किल यह है कि मैंने जो आंसू बहाए हैं, उन्हें आपको कैसे दिखाऊं? मैंने जो खुशियां पाई हैं, उन्हें आपको कैसे महसूस कराऊं?" उन्होंने भावुक होकर यह भी लिखा है कि, "मेरे जीवन के अंतिम पड़ाव में जो कुछ सीखने में कसर रह गई थी, वह भी पूरी हो गई। आत्मकथा का तीसरा खण्ड "दुनिया रंग-बिरंगी" उन्हीं साँसों की आहट है, जो किसी भी क्षण रुकने के लिए आतुर है।" "दरअसल यह आत्मकथा "मैं" की नहीं, "हम" की है।
श्री अग्रवाल के साहित्य सृजन की लोकप्रियता में सोशल मीडिया के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। वे इसे खुले तौर पर स्वीकार भी करते हैं। सोशल मीडिया के वे हिमायती भी हैं। जब उनसे यह सवाल किया गया कि सोशल मीडिया के ज़रिये जो रचनाएं लिखी जा रहीं हैं, उनके स्तर से क्या आप संतुष्ट हैं? उन्होंने कहा "उनके स्तर की जांच करने वाला मैं कौन होता हूँ? मैं न्यायाधीश नहीं हूँ। उनके स्तर का आंकलन पाठक करेंगे। पाठक भी सब किस्म के होते हैं। जो घटिया स्तर के पाठक होंगे वे घटिया रचनाओं और जो उच्च स्तर के पाठक होंगे वे उसी स्तर को पसंद करेंगे।"
वर्तमान में सोशल मीडिया की ताकत को आप किस रूप में आंकते है? जवाब था -"यह बहुत मजबूत है। इसका असर देशव्यापी है। देखिये, हर व्यक्ति में दो प्रतिभाएं नैसर्गिक होती हैं। एक, साहित्य सृजन की और दूसरी, गायन की। वह कोशिश करता है कि उसे कोई ऐसा मंच मिले जहां वह अपने लिखे को बता सके और अपने गाने को सुना सके। फेसबुक, वाट्सएप आदि सोशल मीडिया के ऐसे साधन हैं, जिससे लोग अपनी बात खुल कर प्रस्तुत कर पा रहे हैं। उनका उत्साह बढ़ रहा है। उन्हें अपनी कमियों को सुधारने का मौक़ा भी मिल रहा है।"
साहित्य के क्षेत्र में बढ़ती खेमेबाजी पर प्रतिक्रियास्वरूप उन्होंने नाराज़गी व्यक्त करते हुए कहा कि "साहित्य के क्षेत्र में खेमेबाजी करना दुष्टों का काम है। उनको अपना काम करने दीजिए।" अधिकाँश पुराने नामी साहित्यकारों द्वारा नए साहित्यकारों को हतोत्साहित किये जाने पर श्री अग्रवाल ने तंज कसते हुए कहा कि, "साहित्य के क्षेत्र में जो स्थापित हो जाता है, वह मठाधीश हो जाता है। इसका कोई उपाय नहीं है।"
प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं द्वारा रचना प्रकाशन में बरते जाने वाले भेदभाव के बारे में उन्होंने कहा कि, "संपादकों के जो लोग परिचित होते हैं या जिनके लिए सिफ़ारिश होती है, वे उनको छपने का मौक़ा देते है। नए लोगों की बात उनको पसंद नहीं आई तो उन्हें मौक़ा नहीं देते हैं। उनके इस वर्चस्व को सोशल मीडिया ने ही तोड़ा है।"
साहित्य में वर्गीकरण विमर्श और अपने लोगों को ही  महत्व देने के सन्दर्भ में श्री अग्रवाल का मंतव्य था "जो लोग अपने और अपनों की बात को महत्व दे रहे हैं, तो इसमें कोई गलत नहीं है। लेकिन दूसरे के साहित्य को नीचा दिखा रहे हैं, उसका मखौल उड़ाते हैं, यह साहित्य के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है।" साहित्यिक गोष्ठी में भी नए साहित्यकारों की उपेक्षा के बारे में इनका कहना है कि, "ये तो होता ही है। मेरे ख्याल से इसका कोई उपाय नहीं है।"
आने वाला समय साहित्य के क्षेत्र के लिए कैसा होगा? इनका प्रत्युत्तर था "मुझे तो अच्छा लग रहा है। सोशल मीडिया और जो नए प्रकाशन गृह शुरू हुए हैं, वे हिन्दुस्तान में तेजी से उभरे हैं। वो बहुत मौक़ा दे रहे हैं।  लोगों की कृतियों को छाप कर पाठकों तक पहुंचा रहे हैं। मैं बहुत आशान्वित हूँ कि आने वाले दस वर्षों में हिंदी साहित्य में अच्छी प्रगति होगी। बड़ी क्रान्ति होने वाली। है।"
हिंदी सिनेमा में साहित्यिक कृतियों के महत्व को लेकर श्री अग्रवाल ने दावा किया कि, फिल्मों में इसे सदा महत्व दिया गया है। मदर इंडिया, मुग़ले आज़म, गोदान, , साहब बीबी ग़ुलाम जैसी फ़िल्में साहित्यिक कृतियों पर बनी थी। पहले भी काम हो रहा था। अब भी हो रहा है। जैसे जैसे साहित्यिक कृतियों के प्रति सिने निर्देशकों का रुझान बढ़ेगा तो साहित्य को महत्व मिलेगा। जो लोग साहित्य नहीं पढ़ते वे फिल्मों के माध्यम से साहित्य को जान पाएंगे और नए पाठक तैयार हो पाएंगे।"
टीवी सीरियल में साहित्यिक कृतियों के उपयोग के बारे में उनका कहना है कि, "अब तक साहित्यिक कृतियों पर जो धारावाहिक आये हैं, वो शानदार हैं। दूरदर्शन को रिप्लेस करने के बाद जो प्राइवेट चैनल आये उन्होंने इस मामले में उतना न्याय नहीं किया। कमी तो खटकती है। अब तो ज्यादातर गप्पबाजी चल रही है।"
प्रसिद्ध साहित्यकारों की कृतियों के नाम पर धारावाहिकों में कुछ अरसे बाद मनगढ़ंत कहानियों को परोसा जाता है, इस संबंध में श्री अग्रवाल ने कहा कि, "सीरियल के लेखकों को जो समझ में आता है, लिख देते हैं। निर्माता को समझ में आया बना देते हैं। सारा खेल रकम पर टिका है। फ़िल्म , सीरियल बनाना बहुत खर्चीला काम है। देखना पड़ता है कि क्या बिकेगा।"
साहित्य के क्षेत्र में आपकी भावी योजना क्या है? उन्होंने स्पष्ट किया कि "मैं कोई योजना नहीं बनाता। और न ही योजना बना कर लिखता हूँ। मुझे कई बार ऐसा लगता है कि जो कुछ लिखा वह मैंने नहीं लिखा। पता नहीं किसने मुझसे लिखवाया।"
(भेंटवार्ता और चित्र दिनेश ठक्कर बापा द्वारा)

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